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________________ + !" + + + + + + + + + - अप्रतिबुद्धने कया। तहां आचार्य कहे हैं, जो ऐसें नाहीं है। तूंनपविभागका जाननेवाला नाहीं । है। नयविभाग ऐसा है, सोही गाथामैं कहै हैं । गाथा वहहारणयो भासदि जीवो देहो य हवदि खलु इक्वो। ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदावि एकठो ॥२७॥ व्यवहारनयो भाषते जीवो देहश्च भवति खल्वेकः । न तु निश्चयस्य जीवो देहश्च कदाप्येकार्थः ॥२७॥ मात्मख्यातिः-इह खलु परस्परावगादावस्थायामात्मशरीरयोः समवर्तितावस्थायां कनककलधौतयोरेकस्कंधन्य- पर वहारवयवहारमात्रणेवैकत्वं न पुननिश्चयतः। निश्चयतो छात्मशरीरयोरुपयोगानुपयोगस्वभावयोः बनकलधौतयोः पीतपांडुरत्वादिस्वभावयोरिवात्यंतव्यतिरिक्तत्वेनैकार्थत्वानुरपः नानात्वमेव हि किल नयविभागः। ततो व्यवहारनयेनैव शरीरस्तवनेनात्मस्तवनमुपपन्न । तथाहि___ अर्थ-व्यवहारनय है सो तौ, जीव अर देह एकही है ऐसा कहे है । बहुरि निश्चयनयके जीव ॥ अर देह कदाचित् भी एकपदार्थ नाहीं हैं। _____टीका-जैसें इस लोकविर्षे सुवर्ण अर रूपाकू गालि एक कीये एकपिंडका व्यवहार होय है, 卐 तैसें आत्माकै अर शरीरकै परस्पर एकक्षेत्रावगाहकी अवस्था होते एकपणाका व्यवहार है, ऐसे .. व्यवहारमात्रहीकरि आत्मा अर शरीरका एकपणा है। बहुरि निश्चयतें एकपणा नाहीं है, जातें पीला अर पांडुर है स्वभाव जिनिका ऐसा सुवर्ण अर रूपा है, तिनिके जैसे निश्चय विचारिये तब त अत्यंत भिन्नपणाकरि एकपदार्थपणाकी अनुपपत्ति है, तात नानापणा ही है। तैसे ही आत्मा अर 15 शरीर उपयोग अनुपयोग स्वभाव हैं। तिनिक अत्यंतभिन्नपणातें एकपदार्थपणाकी प्राप्ति नाही ताते नानापणा ही है। ऐसा यह प्रगट नयविभाग है । तातें व्यवहारनयही करि शरीरके स्तवन + + + + मिले।
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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