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________________ 5 s s f 5 s म अर्थ-जैसे कोई पुरुष मद्यत तीन अरतिभावकरि विनाप्रीति पीवता संता मद रूप न होय ॥ य... है-मतवाला न होय है, तैसें ज्ञानी द्रव्यके उपभोगविर्षे अरत कहिये तीव्र रागरहित भया संता , कर्मनिकरि नाहीं बंधे है। प्र टीका-जैसे कोई पुरुष मदिराप्रति प्रवर्त्या है तीव्र अरतिभाव जाका ऐसा भया संता मदिराकू पीवता संता भी तीव्र अरतिभावकी सामर्थ्यते मतवाला नाही होय है, तैसें ज्ञानी भी रागादि9 भावनिके अभावकरि सर्व द्रव्यका उपभोग प्रति प्रवा है तीव्र विरागभाव जाका ऐसा भया संता 1- भी विषयनिकू भोगता संता, तीव्र विरागभावके सामर्थ्य कर्मनिकरि नाही धंधे है। 1. भावार्थ-यह वैराग्यका सामर्थ्य है, जो विषयनिकू सेक्ता संता भी कर्मनिकरि नाहीं बंधे 5 卐है। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं। स्थोद्धताछन्दः नानु ते विषयसेवनेऽपि यः स्वं फलं विषयसेक्नस्य ना। ज्ञानवैभवविरागतापलाव सेवकोऽपि तदसावसेवकः ॥ ३ ॥ अथैतदेव दर्शयति+ अर्थ-यह पुरुष है सो विषयनिकू सेवते संते भी जो विषयसेवनेका निजफल है, ताको नाहीं है ..पावे है । सो ज्ञानके विभवका अर विरागताका बलते यह विषयनिका सेवनहारा है, तोऊ सेवनसहारा नाहीं है। भावार्थ-ज्ञानका अर विरागताका कोई अचिंत्य सामर्थ्य ऐसा ही है, जो इंद्रियनिकरि । "विषयनिकू सेवे है, तौऊ ताकू सेवनहारा न कहिये । जाते विषयसेवनका सामान्य निजफल संसार । 卐है। सो ज्ञानी वैरागीके मिथ्यात्वके अभावतें संसारका भ्रमणरूप फल नाहीं होय है। आगे इस प्र 卐 s 卐 折 $ $ $
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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