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பூமிக்க*********
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तें तिविष स्थाप्या है अपना पद जानें ऐसे पुरुषनिकूं हस्तावलंवतुल्य कया । सो "हन्त " कहिये यह बड़ा खेद है । तथापि जे पुरुष चैतन्यचमत्कारमात्र परम अर्थ शुद्धनयका विषयभूत 5 परद्रव्य भावनिसं अतरङ्गविरहित जवलोकन करे हैं, ताका श्रद्धान करे हैं, तथा तिसस्वरूपलीन होय चारित्रभावकूं प्राप्त होय हैं । तिनिकैं यह व्यवहारनय किमी प्रयोजनवानू नाहीं है । 卐 भावार्थ- शुद्धस्वरूपका ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरण भये पोछें अशुद्धनय किछूभी प्रयोजनकारी नाहीं है । अब दूसरा काव्यमैं निश्वयसम्यक्त्वका स्वरूप कहे हैं।
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शार्दूलविक्रीडित छन्दः
एकत्वे नियतस्य शुद्धनषतो व्यार्यस्यात्मनः पूर्णज्ञानयनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् । सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं तन्मुक्ला नायसन्ततिमिमामात्मायमेकोऽस्तु नः ॥३॥ अर्थ -- जो इस आत्माका अन्यद्रव्यनितें न्यारा देवरा श्रद्वान करना सोही यहू नियमतें सम्यग्दर्शन है । कैसा है आत्मा ? अपने गुणपर्याय निचिषै व्यापनेवाला है । बहुरि कैसा है ? करणाविषे निश्चित कीया है। बहुरि कैसा है ? पूर्ण ज्ञानवन है । बहुरि जेता यह फ सम्यग्दर्शन है तेताही आत्मा है । तातें आचार्य प्रार्थना करे हैं जो इस तस्वको परिपाटीकूं छोडि यह आत्माही हमारे प्राप्त होहू ।
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भावार्थ - सर्व जे स्वाभाविक तथा नैमित्तिक अपनी अवस्थारूप गुणपर्यायभेद तिनिमैं व्यापनेवाला जो यह आत्मा शुद्धपकरि एकपणाविषै निश्चित कोया, शुद्धयतें ज्ञायकमात्र एक
5 आकार दिखाया, ताका सर्व अन्यद्रव्य अर अन्यद्रव्यनिके भाव तिनितें जो न्यारा देखना श्रद्धान करना सो यह नियम सम्यग्दर्शन है। व्यवहारनय आत्माका अनेकभेदरूप कहि सम्यग्दन 5 अनेकभेदरूप कहे हैं तहां व्यभिचार आवै, या नियम न रहै। शुद्वनयकी हद पहुंचे व्यभिचार क
नाहीं है, तातें नियमरूप है । कैसा है ? शृद्वनयका विषयभूत आत्मा पूर्णज्ञानवन है। सर्व 卐 5 लोकालोकका जानवद्वारा जानस्वरूप है । बहरि याका श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन है । सो किछु
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अम्भु