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________________ 卐 आत्माका परमार्थस्वरूप जान्या नाहीं । कर्मोदयजन्ति भावकूं भला जान्या । तिसतें उत्पना १२५ समय मोक्ष होना मान्या । ऐसें मानते अज्ञानी ही है। आपका परका परमार्थरूपकूं न जान्या । तब 5 जानिये जीव अजीव पदार्थका भी परमार्थरूप न जान्या । तब जो जीव अजीवकूं ही न जान्या, सब काका सम्यग्दृष्टि ऐसें जानना । अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं। तामेँ जे रागी 卐 5 प्राणी अनादितें रागादिककू अपना पद जाने हैं, सिन्हि उपदेश करे हैं। मन्दाक्रान्ताछन्दः फफफफफफफफफफफफ 卐 卐 卐 फफफफ आसंसारात्प्रतिपदममी रागिणो नित्यमचाः सुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्धि बुध्यध्वमन्वाः । एतैतः पदमिदमिदं यत्र चैतन्यधातुः शुद्धः शुद्धः स्त्ररसभरतः स्थायिभावत्वमेति || ६ || किं तत्पदम् ? अर्थ संसारी भव्यप्राणीकूं श्रीगुरु संबोधे है। जो हे अंधे प्राणी हौ, ए रागी पुरुष हैं, ते अनादि संसार लगाय जिस पदविष सोते हैं-निद्रामैं मग्न हैं, तिस पदकूं तुम अपद जानो अपद 5 जानो, यह तुमारा ठिकाना नाहीं । इहां दोय वारंवार कहनेतें अतिकरुणाभाव सूचे है । फेरि कहे हैं जो तुमारा ठिकाना यह है यह है। जहां चैतन्य धातु शुद्ध है शुद्ध है । अपने स्वाभा 15 विकरसके समूहतें स्थायीभावपणाकू प्राप्त है । इहां दोय शुद्धपद हैं, सो द्रव्य अर भाव दोऊकी शुद्धता अर्थ हैं । सो सर्व अन्यद्रव्यनित न्यारा, सो तौ द्रव्यशुद्धता है । अर परनिमित्ततें भये 5 अपने भाव तिति रहित भाव शुद्ध कहिये । सो इतः कहिये इस तरफ आवो इस तरफ आवो15 इहां निवास करौ । 5 भावार्थ - प्राणी अनादि संसारत लगाय रागादिककूं भला जाणि, तिनिहीकूं अपना स्वभाव मानि, तिनिहीविषै निश्चित तिष्ठे हैं-सोवे हैं । तिनिकं श्री गुरु दयालु होय संबोधे —जगावे है- सावधान करे है। जो हे अंधे प्राणी हो, तुम जिस पदवियें सोचौ हौ, सो पद नाही है, सारा पद तौ चैतन्यस्वरूपमय है, तिसकूं प्राप्त होऊ, ऐसें सावधान करे है।
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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