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________________ र ८ एवमेव मोहपदपरिवर्त्तनेन , रागद्वेषक्रोधमानमा गलोमकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचधुर्घाणरसनसनस्त्राणि । षोडश व्याख्येयानि अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि । अथ शेयभावविवेकप्रकारमाह । अर्थ-मैं इस लोकमें आपहीकरि अपने एक आत्मस्वरूपकू अनुभवू ई। कैसा मेरा स्वरूप! - 'सर्वतः' कहिये सर्वांगकरि अपने निजरस जो चैतन्यका परिणमन, ताकरि पूर्ण भरथा ऐसा है 5 भाव जामैं, याहीतें यह मोह है सो मेरा किछू भी लागता नाहीं है, याके अर मेरे किछु भी नाता नाहीं है। मै तो शुद्ध चैतन्यका 'घन' कहिये समूहरूप तेजःपुंजका निधि हूं। भावक-" भावका भेदकरि ऐसे अनुभवन करे। ऐसे ही गाथामैं मोहपद है ताकू पलटिकरि राग, द्वेष, ॥ क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काथ, श्रोत्र, चक्षु, प्राण, रसन, स्पर्शन ए सोलह पद न्यारे न्यारे सोलह गाथासूत्रकरि व्याख्यान करना अर इसही उपदेशकरि अन्य भी विचारने। आगें ज्ञेयभावतें भेदज्ञान करनेका प्रकार कहे हैं। गाथा णत्थि मम धम्म आदी बुज्झदि उवओग एव अहमिको। तं धम्मणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया विति ॥३७॥ नास्ति मम धर्मादिबुध्यते उपयोग एवाहमेकः । तं धर्मनिर्ममत्वं समयस्य विज्ञापका विन्दन्ति ॥३७॥ ___ आत्मख्यातिः–अमूनि हि धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवांतराणि स्वरसविज्र भितानिवारितप्रसरविश्ववस्मरप्रचंड-म चिन्मात्रशक्तिकवलिततयात्यंतमंतर्मग्नानोवात्मनि प्रकाशमानानि टंकोत्कीर्णज्ञायकस्वभावत्वेन तस्तोतस्तत्त्वस्य तदतिरिक्तस्वभावतया तवतो वहिस्तत्त्वरूपता परित्यक्तमशक्यत्वास नाम मम संति। किंचतत्स्वयमेव च नित्यमेवोप-5 युक्तस्तत्वत एवैकमनाकुलमात्मानं कलयन भगवानात्मवावबुध्यते यत्किलाई खल्वेकः ततः संवेद्यसंवेदकभावमानोपजाते तरेतरसंबलनेपि परिस्फुटस्वदमानस्वभावभेदतया धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवांतराणि प्रति निर्ममत्वोमि । सर्वदेवात्मै- - कत्वगतत्वेन समयस्यैवमेव स्थितत्वात् इतीत्थं ज्ञयभावविवेकोभूतः।। अर्थ-जो ऐसा जानना होय-जो ए धर्म आदिक द्रव्य हैं ते मेरे किछू भी लागते नाही ,
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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