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________________ $ $ प्राभूत $ $ $ + $ + $ + शार्दूलविक्रीडितछन्दः न्याप्यन्यापकता तदात्मनि भवेन्नैरातदान्मन्यपि व्याप्यव्यापकभावसंभवमृते का कर्तृ कर्मस्थितिः।। इत्युद्दामपिवेकघस्मरमहो भारेण मिदंस्तमो ज्ञानीभ्य तदा स एष लसितः कर्तृत्वशून्यः पुमान् ।।४॥ पुद्गगलकर्म जानतो जीवस्य सह पुद्गलेन क कर्मभावः किं भवति किं न भवतीति चेत् । अर्थ-व्याप्यव्यापकपणा है सो तदात्मा कहिये तत्स्वरूप ही होय ताके होय, अतत्स्वरूप- - विर्षे नाहीं होय है। बहुरि व्याप्यव्यापक भावका सम्भवविना कर्ताकर्मकी स्थिति कोन सी कुछ भी नाहीं ऐसा उदार विवेकरूप अर घस्मर कहिये समस्तकू ग्रासीभूत करनेका जाका स्वभाव ' ऐसा जो ज्ञानस्वरूप तेज प्रकाश, ताका भारकरि अज्ञानरूप अंधकारकू भेदता संता पह आत्मा ज्ञानी होय, खिल काल पाएगावारि रहित भर सोभे है। भावार्थ-जो सर्व अवस्थामैं व्यायै सो तो व्यापक, अर जे अवस्थाके विशेष ते व्याप्य । ऐसे होते द्रव्य तौ व्यापक हैं, अर पर्याय व्याप्य हैं । सो द्रव्यपर्याय अभेदरूप ही हैं। जो द्रव्यका 卐 आत्मा सो ही पर्यायका आत्मा, सो ऐसा व्याप्यप्यापकभाव तत्स्वरूपविय ही होय, अतत्स्वरूप विर्षे नाहीं होय । तहां ऐसा सिद्ध होय है जो व्याप्यव्यापकमात्र विना कर्ताकर्मभाव न होय ऐसे जो जाने सो पुद्गलकै अर आत्माकै कर्ताकर्मभाव नाहीं जाने, तब ज्ञानी होय, कर्ताकर्मभावकरि ॥ रहित होय, ज्ञाता, द्रष्टा, जगतका साक्षीभूत होय है । आगें पूछे हैं, जो जीव पुद्गलकू जाने ताके पुद्गलकरि सहित कतृ कर्मभाव होय है, कि नाहीं होय है ? ऐसे पूछे उत्तर कहे हैं । गाथा नीचे लिखी एक गाथाकी आत्मख्याति संस्कृत और हिन्दी टीका उपइन्ध नहीं है इसलिये नहीं छापी गई। म तात्पर्यवृत्ति टीका मिलती है वह छापी है।। कत्ता आदा भणिदो ण य कत्ता केण सो उवाएण । धम्मादी परिणामे जो जाणदि सो हवदि णाणी ॥ $ 5 5 $ $ 5 5 折 5 5 ܘܕܕ 折 5 F 5 -
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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