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5 ऐसा मानस्वभाव अन्य अपतनद्रव्यनिमें नाहीं, तातें सर्वते अधिक न्यारा ही है। ऐसे मालाम
माणे मोजितेंद्विय जिन है। ऐसे एक तो यह निश्चयस्तुति भई । इहां शेष तौ इंद्रियनिके ... विषयभूत पदार्थ अर सायक आप आमा, इनि दोऊनिके विषयनिकी आसकताकरि अनुभवनमा एकसा होय था, सो भेदझानकार भिन्नपणा जान्या, तब ज्ञेयज्ञायक संकरदोष हरि भया ऐसे मानना । आगें भाव्यभावक संकरदोष परिहार करि स्तुति कहे हैं। गाया
जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाघियं मुणइ आदं तं जिदमोहं साहुं परमवियाणया विति॥३२॥ यो मोहं तु जिवा ज्ञापर ववाधिष मालालकिला !
तं जितमोहं साधु परमार्थ विज्ञायका विंदन्ति ॥३२॥ आख्याति:-यो हि नाम फलदानसमर्थतया प्रादुर्भूय भावकत्वेन भवंतमपि दूरत एव तदनु पुरात्मनो भावस्य ,.. ब्यावर्तनेन हठान्मोई न्यकृत्योपरतसमस्तभाव्यभाक्कसंकरदोषत्वेनैकत्वे टंकोत्कीर्ण विश्वस्याप्यस्योपरितरता प्रत्यक्षी, पोतितया नित्यमेवांतः प्रकाशमानेनानपायिना स्वतः सिरन परमार्थसता भगवता ज्ञानस्वभावेन द्रव्यांतरस्वभावमाविम्यः - सर्वेभ्यो भावांतरेभ्यः परमातोतिरिक्तमात्मानं संचेतयते स खलु जितमोहो जिन इति द्वितीया निश्चयस्तुतिः । एवमेव , च मोहपदपरिवर्तनेन रागद्वपक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायसूत्राण्येकादश पंचानां प्रोत्रचक्षुणरसनस्पर्शनसूत्राणामिद्रियसूत्रेण पृयग्न्याख्यातत्वाद्वयाख्येयानि ! अनया दिशान्यान्यप्लानि । अथ भाम्पमावकभावाभावेन। " ____ अर्थ-जो मुनि मोहकू जीतिकरि अपने आत्माकू ज्ञानस्वभावकरि अन्यद्रव्यभावनित अधिकाजाने तिस मुनीकू परमार्थ के जाननेवाले जितमोह ऐसा जाने हैं, कहे हैं।
टीका-जो मुनि है सो फल देनेकी सामर्थ्यकरि प्रगट उदयरूप होय अर भावकपणाकरि प्रगट होता जो मोहकर्म, ताही, तिसके अनुसार है प्रवृत्ति जाकी, ऐसा जो अपना आत्मा भाव्य, ताकू भेवज्ञानके बलतें दूरिहीतें न्यारा करनेकरि मोहकू न्यारा करि, अर तिरस्कार करनेतें दूरि॥ भया है समस्त भाव्यभावक संकरदोष जामैं, तिसपणाकरि एकपणा होते, टंकोत्कीर्ण निश्चल