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बन्पच्छेदात्कलयदतुलं मोक्षमक्षय्यमेतमित्योद्योतस्फुटितसहजावस्वमेकान्तशुद्धम् । एकाकारस्वरसभरतोऽत्यन्तगम्भीरधीरं पूर्ण ज्ञानं ज्वलितमचले स्वस्य लीनं महिम्नि ॥१३॥
पनि सोलो जितः ।
इति समयसारन्याख्यायामात्मख्याती अष्टमोंकः । ___ अर्य-यह ज्ञान है सो पूर्ण भया संता दैदीप्यमान प्रगट भया । कहा करता संता प्रगट भया ? कर्मका बंध था ताके छेदतें अविनाशी अतुल जो मोक्ष, ताकू प्राप्त होता संता । बहुरि ॥ कैसा प्रगट भया ! नित्य है उद्योत प्रकाश जाका ऐसी प्रफुल्लित भई है स्वाभाविक अवस्था "जाकी । बहुरि कैसा प्रगट भया ? एकान्तशुद्ध कहिये ताकै कर्मका मैल न रह्या अत्यंत शुद्ध 4 भया प्रगट भया । बहुरि कैसा प्रगट भया? एक जो अपना ज्ञानमात्र आकार, ताका निजरसका । "भरतें अत्यंत गंभीर है अर धीर है-जाकी थाह नाहीं अर जामैं किछू आकुलता नाहीं । बहुरि । म प्रगट होयकरि कहा किया ? अचल जो कोई प्रकार चले नाहीं ऐसी आपको महिमा, ताविर्षे )
लीन भया । 9 भावार्य-यह ज्ञान प्रगट भया सो कर्मका नाश करि मोक्षरूप होता अपनी स्वाभाविक है
अवस्थारूप अत्यंत शुद्ध समस्त ज्ञेयाकारकू गौण करि ज्ञानका प्रकाश "जाका थाह नाहीं जामें फ्र आकुलता नाही" ऐसा प्रगट दैदीप्यमान होयकरि अपनी महिमाविर्षे लीन भया। ऐसे रंग. .. भूमिविर्षे मोक्षतत्त्वका स्वांग आया था; सो ज्ञान प्रगट भया, मोक्षका स्वांग निसरि गया।
सवैया--ज्यों नर कोय परथो दृढबंधन बंधस्वरूप लखै दुखकारी।
चित कर निति कम कटै यह तौऊ छिदै नहि नै कटिकारी ॥
छेदन गहि आयुध धाय चलाय निशंक करै दुय धारी।।
__ यो युध बुद्धि धसाय दुधा करि कर्मरु आतम आप गहारी ॥१॥ ऐसें इस समयसारग्रंथकी आत्मख्यातिनामा टीकाकी वचनिकावि आठमा मोक्षनामा
अधिकार पूर्ण भया ॥॥इहां ताई गाथा ३०७ भई । कलश १९२ भये । 卐
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