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________________ + ! 5 | 5 折折乐 乐乐 乐乐 乐乐 乐乐 乐 जथाप्रतिबुद्धबोधनाय व्यवज्ञायः अर्थ-जगत् कहिये लोक है सो अनादिसतारतें लेकर आखाद्या अनुभूया जो मोह, ताही , __ आवतो छोडो । बहुरि रसिकजनको रुचनेवाला उदय होता जो शान, नाही आस्वादो, जातें प्रभू इस लोकवि आत्मा है सो अनात्मा जो परद्रव्य, ताकार सहित काहूही कालविक प्रगटकरि नाहीं प्राप्त होय है, जातें, आला एक है, लो, अनात्मा जो दूना अन्यद्रव्य, ताकर एकतारूप नाहीं होय है। भावार्थ-आत्मा परद्रव्यते काहू प्रकार कोई कालविर्षे एकताका भाकू नाहीं प्रात होय है। तातें आचार्यनें ऐसी प्रेरणा करी है, जो, अनादित लग्या जो परद्रव्यते मोह, ताका भेदज्ञान बताया है, सो या एकपणारूप मोहकू अबही छोडो, अर ज्ञानकू आस्वादो, मोह है सो वृथा है, झूठा है, दुःखकारण है । आगें अप्रतिबुद्धके प्रतिवोधनेके अर्थी व्यवसाय कहिये व्यापार उपाय कहे हैं। गाथा अण्णाणमोहिदमदी मज्झमिण भणदि पुग्गलं दव्वं । बद्धमबद्धं च तहा जीवो बहुभावसंजुत्तो॥२३॥ सव्वण्हुणाणदिछो जीवो उवओगलक्षणो णिचं । किह सो पुग्गलदवीभूदो जं भणसि मज्झमिणं ॥२४॥ जदि सो पुग्गलदव्वीभूदो जीवत्तमागदं इदरं । तो सत्ता चुत्तुं जे मज्झमिणं पुग्गलं दव्वं ॥२५॥ अज्ञानमोहितमतिर्ममेदं भणति पुद्गलद्रव्यं । बद्धमवद्धं च तथा जीवो बहुभावसंयुक्तः ॥२३॥ + + + + + + 卐
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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