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________________ 15 ++ + । प्रकास आदि प्रवतें हैं। सिनिमें समयप्राभूतनाम शास्त्र है सो प्राकृतभाषामय गाथावध है, ताकी .. आत्मख्याति नामा संस्कृतटीका अमृतचन्द्र आचार्य करी है । सो कालदोपते जीवनिकी बुद्धि मन्द । होती आवे है, साके निमित्ततें प्राकृत संस्कृतके अभ्यास करनेवाले विरले रहि गये। अर गुरुनिकी परम्पराका उपदेश भी विरल हो गया। तातें मेरो बुद्धिसार ग्रन्थनिका. अभ्यास करि इस ग्रन्धकी । देशभाषामय वचनिका करनेका प्रारंभ किया है। सोभव्यजीव बाचेंगे, पढेंगे, सुनेंगे सिसका तात्पर्य धरेंगे सिनिमा विद्यात्मका असाच होयगा, सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होयगी ऐसा अभिप्राय है। किछु 1- पंडिताईका तथा मान लोभ आदिका अभिप्राय है नहीं। यामें कही बुद्धिकी मन्दतातें तथा ॥ प्रमादतें हीनाधिक अर्थ लिखू तो बुद्धिके धारक जन मूलग्रन्थ देखि शुद्धकरि बांचियो, - हास्य मति करियो। सत्पुरुषनिका स्वभाव गुणग्रहग करनेहीका होय है। यह मेरी परोक्ष प्रार्थना है। इहां कोई कहे इस समयसारग्रन्थकी तुम वचनिका करो हो सो यह अध्यात्मग्रन्थ है, यामें , शुद्धनयका कथन है, अशुद्धनय व्यवहारनय है, सो ताकू गौणकार असत्यार्थ कहा है, तहां - 卐 व्यवहारचारित्रकू अर ताके फल पुण्यबन्धकं अत्यन्त निषेध किया है, मुनित्रतभी पाले ताकै मोक्ष... मार्ग नाहीं ऐसे कहा है, सो ऐसे ग्रन्थ तो प्राकृत संस्कृत ही चाहिये, इनिकी क्चनिका भये सर्वही प्राणी बांचे, तामें जो व्यवहारचारित्रकू निष्प्रयोजन जाणे अर अरुचि आवै तो अंगीकार न करे, 1- पहले किछु अंगीदार किया होय तो भ्रष्ट हो जाय, स्वच्छंद होय, प्रमादी होय, श्रद्धानका विपर्यय ॥ "होय तो बड़ा दोष उपजे । यह अन्य तो-जो पहले मुनि भये होय दृढ चारित्र पालते होय अर .. शुद्ध आत्मस्वरूपके सन्मुख न होय अर व्यवहारमात्रहीतें सिद्धि होनेका आशय आगया होय तिनिक शुद्धामाकै सन्मुख करनेक है तिनिहीका सुननेका है, तातें देशभाषामय वचनिका करना युक्त । नाहीं । ताकू कहिये है___ जो यह तो सत्य है यामें कथन शुद्धनयहीका है। परंतु जहां जहां अशुद्धनय रूप व्यवहारनयका 卐卐म
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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