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चौथा प्राभूतका ज्ञान था । सो यह प्राभृत भूतबली अर पुष्पदन्त नाम दोऊ मुनीनिकूं पढाया । 5
पीछें तिनि दोऊ मुनीनें आगामी कालदोषतें बुद्धिकी मन्दता जाणि तिस प्राभृतके अनुसार
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षट्खंड सूत्र बांधि पुस्तकों में लिखाय तिनिकी प्रवृत्ति करी । ता पीछें जे मान भये, तिननें तिनही 5
5 सूत्रनिपढिकरि तिनिकी टीका विस्ताररूप करिं धवल महाघवल जयधवल आदि सिद्धान्त रचे । aaj परिन्द्र आदि आचार्यनिने गोमटसार, लब्धिसार, क्षपणासार आदि शास्त्रनिकी फ 5 प्रवृत्ति करी । यह तो प्रथम सिद्धान्तकी उत्पत्ति है । तिनिनें तो जीव अर कर्मके संजोगतें या जो आत्माका संसारपर्याय, ताका विस्तार गुणस्थानमार्गणा रूप संक्षेपकरि वर्णन है । यह तो पर्यायार्थिक नय प्रधानकरि कथन है इसही नयकुं अशुद्ध द्रव्यार्थिक कहिए । तथा अध्यात्मभाषाकरि अशुद्ध निश्चय कहिये तथा व्यवहार भी काहेये ।
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बहुरि एक गुणधर नामा मुनि भये, तिनिकं ज्ञानप्रवादपूर्वका दशम वस्तु तिसका तीसरा 5 5 प्राभृतका ज्ञान था । तिस प्राभृतकुं नागहस्ती नामा मुनि पढ्या, तिनि दोऊ सुनीनितें यतिनायक नामा मुनि तिस प्राभृतकूं पढि, तिसकी चूर्णिका रूप छह हजार सूत्रोंका शास्त्र रच्या। ताकी टीका फ 5 समुद्धरण नामा मुनि बारह हजार प्रमाण रवी । ऐसें आचार्यनिकी परम्परातें कुन्दकुन्द मुनि तिनि सिद्धान्तनिके ज्ञाता भये । ऐसें इस द्वितीय सिद्धान्तकी उत्पत्ति है, या ज्ञानकं प्रधानकरि शुद्धद्रव्यार्थिकन्यकरि कथन है । तहां अध्यात्मभाषाकरि आत्माहीका अधिकार है। याकूं शुद्धनिश्चय
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कहिये परमार्थ कहिये । यानें पर्यायार्थिकनयकूं गौणकरि व्यवहार कहि असत्यार्थ का है, सो जहांताई पर्यायवृद्धि रहै, तहांतांई या जीवकै संसार है ।
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बहुरि जब शुद्धनयका उपदेश पाय द्रव्यबुद्धि होय, अपने आत्माकूं अनादि अनन्त एक सर्व
परद्रव्यपर भावनिके निमित्ततें भये अपने भाव तिनितें भिन्न जाने, अपना शुद्धस्वरूपका अनुभवकरि
5 शुद्धोपयोग में लीन होय, तब कर्मका अभाव करि निर्वाणकं प्रात होय है। या प्रकार इस द्वितीय
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सिद्धान्तकी परम्परातें शुद्धनयका उपदेशके शास्त्र पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार, परमात्म
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