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________________ % % % % 5.5 % ++ % शब्दसंस्थानध्यक्तत्वाभावपि स्वसंवेदनबलेन नित्यमात्मप्रत्यक्षत्वे सत्यनुमेयमात्रत्वाभावादलिंगग्रहणः । समस्तविप्रतिपतिप्रमाथिनी विवेचकजनसमर्पितसर्वस्वेन सकलमपि लोकालोकं कवलीकृत्यात्यंतसौहित्यमंथरेणेव सकलकालमेव मनागप्य-5 विचलितानन्यसाधारणतया स्वभावभूतेन स्क्यमनुभूयमानेन चेतनागुगेन नित्यमेवांतःप्रकाशमानत्वात् चेतनागुणश्च स .. खलु भगवानमलालोक इहैकप्टंकोत्कीर्णः प्रत्यग्ज्योतिर्जीवः । अर्थहे भव्य ! तू जीव ऐसा जानि । अरस कहिये रसरहित है, अरूप कहिये रूपरहित है, . अगंध कहिये गंधरहित है, अव्यक्त कहिये इंद्रियनिके गोवर व्यक नाहीं है, बहुरि चेतना है गुण। जाके, बहुरि अशब्द कहिये शब्दरहित है. बहुरि अलिंगग्रहण कहिये काहू चिन्हकरिहो जाका ग्रहण नाहीं होय है, बहुरि अनिर्दिष्ट संस्थान कहिये जाका आकार किछू कया जाता नहीं, ऐसा जीव जानो। ____टीका-जो जीव है सो निश्वयकरि पुद्गलद्रव्यतें अन्य है, ताते यामैं रसगुण विद्यमान .. नाहीं, तातें अरस है ॥१॥ बहुरि पुगलद्रव्यका गुगनि भी भिन्न है, यातें आप भी रसगुण नाहीं । है, तातें भी अरस कहिये ॥२॥ बहुरि परमार्थत पुद्गलद्रव्यका स्रामीपणा भी याकै नाहीं है, तातें द्रव्येद्रियका अवलंबन करि आप रसरूप नाहीं परिणमे है, ताते भी अरस कहिये ॥३॥ बहुरि अपने स्वभावकी दृष्टिकरि देखिये तब क्षायोपशमिक भाक्का भी याकै अभाव है, याते ॥ भावेंद्रियके अवलंबनकरि भी याके रसरूप परिणामका अभाव कहिये, तातें भी अरस कहिये । ॥४॥ बहुरि याका संवेदनयरिणाम तो एक ही है सो सकलविषयनिक विशेषनिमैं साधारण है, . तिस स्वभावतें केवल एकरसवेदनापरिणामकी प्राप्तिरूप ही न कहिये, तातें भी अरस कहिये ॥५॥ बहुरि याके समस्तही शेयका ज्ञान होय है; परन्तु ज्ञेपशायककै सादाम्य कहिये एकरूप । होनेका निषेध ही है, यातें रसका ज्ञानरूप परिणमे है, तोऊ आप तो रसरूप परिणम नाही, प. तातें भी अरस कहिये ॥६॥ ऐसें छह प्रकारकरि रसका निषेवते अरत है। ऐसे ही अरूप,अगंध, अस्पर्श, अशब्द चारों विषयनिका छह छह हेतुकरि निषेध है, सो कहे तैसे ही जानलेने। ' + % + 牙 + + + 卐
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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