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जीवस्याजीवस्य तु ये परिणामास्तु दर्शिताः सूत्र। ते जीवमजीवं वा तैरनन्यं विजानाहि ॥२॥ न कुतश्चिदप्युत्पन्नो यस्मात्कार्य न तेन स आना। उत्पादयति न किंचित्कारगनपि तेन न स भवति ॥३॥ कर्म प्रतीत्य कर्ता कर्तारं तथा प्रतीत्य कर्माणि ।
उत्पयंते नियमारिसद्धिस्तु न दृश्यतेऽन्या ॥४॥ आत्मरूयातिः-जीवो हि तावरक्रमनियमितात्मपरिगामै रुवद्यमानो जोव एष नाजोवः, एमजीयोऽपि क्रमनियम - मितात्मपरिणामरुत्पद्यमानोऽजीव एवं न जीवः, सर्वद्रव्याणां स्वपरिणामः सह तादात्म्मान कंकगादिपरिगामः कांचनभवत् । एवं हि जीवस्य स्वपरिणामैरुत्पद्यमानस्याप्यजीवेन सह कापै कारणभावो न सिद्धयति सर्वद्रव्याणां द्रव्यांतरेणो। त्पाद्योत्पादकमावाभावात् । तदसिद्धौ चाजोत्रस्प जीवकर्मत्वं न सिद्वयति । तदसिद्वौ च क कर्मणोरनन्यापेक्ष सिद्ध- .. नत्वात्-जीवस्याजीवकर्तृत्वं न सिद्धति, अतो जीवोऽकर्ता अवत्तिइते है अर्थ-जो द्रव्य अपना गुणनिकरि उपजे है, सो तिनि गुणनिकरि अन्य मति जानू तिनि ।
गुणमय ही है । जैसे सुवर्ण है सो अपनः कटक आदि पायनिकार लोको अन्य नाहीं है-कट卐 कादि है सो सुवर्ण ही है । तैसे ही द्रव्य जानु । ऐसें जो अर अजीवके जे परिणाम सूत्र-म .. विर्षे कहे हैं, तिनि परिणामनिकरि तिस जीव अजोकू अनन्य जानू-अन्य मति जानु । परि. प्रणाम हैं ते द्रव्य ही हैं। यातें सो आत्मा कोईत उज्या- नाहीं है, तातें तो काहूका किया कार्य
नाहीं है । बहुरि काहू अन्यकू उपजावै नाहीं है, तातें काहूका कारण भी नाहीं है। बहुरि यहः ।। । न्याय है जो कर्मकू प्रतीत्यकार कर्ता है तैसें ही कर्ताक्प्रतोत्यकरि कर्म उपजे है यह नियम " है। अन्यप्रकार कर्ताकर्मकी सिद्धि नाहीं देखिये है।
टीका-जीव है सो तौ प्रथम ही क्रमकरि अर नियमित निश्चित अपने परिणाम :तिनि卐 करि उपजता संता जीव ही है, अजीव नाहीं है। ऐसे ही अजीव है सा भी क्रमहोकरि अर
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