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卐 काल सो ही शंख परद्रव्यकूं भोगता संता होऊ अथवा न भोगता संता होऊ अपना श्वेतभावकू 5 छोडि आपही कृष्णभावस्वरूप परिणमै, तिस काल fre inr raभाव अपना ही किया कृष्णभावस्वरूप होय । तैसा ही सोही ज्ञानी परद्रव्यकू' भोगता संता होऊ तथा न भोगता 5 संता होऊ जिस काल अपना ज्ञानकूं छोडि स्वयमेव आप ही अज्ञान करि परिणमें, तिस काल याका ज्ञान अपना ही किया निश्चय करि अज्ञानरूप होय है । तातें ज्ञानीके परका किया बंध 5 नाही', आपही अज्ञानी होय तब अपना अपराधके निमित्त बंध होय है ।
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भावार्थ- जैसा शंख श्वेत है, सो परके भक्षणेतें तौ काला होय नाहीं । अब आप ही कालि- 5 मारूप परिणमै, तब काला होय । तैसा ही ज्ञानी उपभोग करता तौ अज्ञानी होय नाहीं । जब 15 आपही अज्ञानरूप परिणमै तब अज्ञानी होय, तब बंध करें है । याका कलशरूप काव्य कहे हैं । शार्दूलविक्रीडित छन्दः
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कर्त्तारं स्वफलेन यत्किल वलात्कर्मेंद नो योजयेत् कुर्वाणः फललिप्सुरेव हि फलं प्राप्नोति यत्कर्मणः ।
ज्ञानं संस्तदपास्तरागरचनो नो बध्यते कर्मणा कुर्वाणोऽपि हि कर्म तत्फलपरित्यागेकशीलो मुनिः ॥ २० ॥
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ताका फलकी इच्छा करें, सोही ताका फल पावे है । तातें जो ज्ञानी ज्ञानरूप हुवा प्रवर्तै अर कर्म करने विषै राग न करें अर तिसका फलकी आगामी इच्छा न करें, सो मुनि कर्मकरि बंधे 5 नाहीं है। आगे इस अर्थ दृष्टांतकरि दृढ करे हैं। गाथा
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अर्थ - - निश्चय कर यह जानू जो कर्म है सो अपने करनेवाले कर्ताकूं अपना फल करि
बरजोरीतें तो नाही जोडे है । सो मेरा फलकूं तू भोगि । जो कर्मकूं करता संता तिस फलका इच्छुक हुवा करे है, सोही तिस कर्मका फल पाये हैं। तातें ज्ञानरूप हुवा संता कर्मविषै दूरी भया 5 है रागकी रचना जाकी ऐसा मुनि है, सो कर्मकू करता संता भी, कर्मकरि नाहीं बंधे है । जाते फ कैसा है यह मुनि ? तिस कर्मके फलका परित्यागरूप ही एक स्वभाव जाका ।
भावार्थ - कर्म तो कर्ताकूं जबरीतें अपना फलतें जोड़े नाहीं । अर जो कर्मकूं करता संता,
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