SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 494
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ F$ $ 乐乐 乐乐 乐乐 乐乐 乐 आत्मख्यातिः-ज्ञानी तु निरस्तभेदभावश्रुतज्ञानलक्षणशुद्वात्मज्ञानसभावेन परतोऽत्यंतविविक्तस्वात प्रकृतिस्वभावं - " स्वयमेव मुचति ततो मधुरं मधुरं वा कर्मफलमुदितं ज्ञात्वात् केवलमेव जानाति, न पुनाने सनि परद्रव्यस्याहंतया卐 अनुभवितुमयोग्यत्वाद दयते । अतो ज्ञानी प्रकृतिस्वभावविरक्तत्वादवेदक एव | 卐 अर्थ-ज्ञानो है सो निवेद कहिये वैराग्य, ताकू प्राप्त है, सो कर्मके पलक जाने है। जो ... मधुर कहिये मोठा है तथा कटुक कहिये कड़वा है ऐसे अनेक प्रकार है ताकू जाने है, तातें अवे, पदक है-भोक्ता नाहीं है। टीका-ज्ञानी है सो दूरि भया है भेद जाम, ऐसा जो अभेषरूप माश्रुतज्ञान है, सो स्वरूप 'जाका ऐसा जो शुद्धात्मा, ताका ज्ञानका सद्भाक्करि परतें अत्यंत विरक्त है। तातें ऐसा ज्ञानी 4. प्रकृतिस्वभाव जो कर्मका उदयका स्वभाव, ताहि स्वयमेव छोडे है, तिसरूप नाही परिणमे है। .. "तातें मीठा कडवा जो सुखदुःखरूप कर्मका फल उदय आया, ताकू, ताकू केवल जाने ही है।" जातें ज्ञानीका ज्ञातापणा स्वभाव है, तातें कर्ता नाही बने है । भोक्ता नाहीं वने है । ज्ञान होते , - संते परद्रव्यका अहंबुद्धिकरि अनुभवनेका अयोग्यपणा है, तातें वेदक नाही है-भोक्ता नाही "होय है। यातें ज्ञानी प्रकृतिस्वभावतें विरक्त है, तिसपणाकरि अवेदक ही-भोक्ता नाहीं है। " 9 भावार्थ-जो जाते विरक्त होय ताकू अपने वश तौ भोगवे नाही अर परवशतें भोगवे तौ - ताकू परमार्थकरि भोक्ता न कहिये । इस न्यायतें ज्ञानी प्रकृतिस्वभाव जो कर्मका उदय, ताकू.. "अपना जाने नाही, तातें विरक्त है, सो स्वयमेव तौ भोगवे ही नाहीअर उदयकी वरजोरी, 卐 ते परवश हुवा अपनी निवलाईते भोगवे तौ ताकू परमार्थकरि भोक्ता न कहिये, व्यवहार .. करि भोक्ता कहिये। ताका इहां शुद्धनयतें अधिकार नाही। अब इस अर्थका कलारूप ... काव्य कहे हैं। ममममम ॥ ॥॥॥॥॥॥॥५
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy