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________________ 45 சுசுககததமி**ழகழி C 卐 卐 भावार्थ - जब आपकूं तो ज्ञायकभावस्वरूप सुखमय जाने, अर कर्मके उदयकरि भये भाव फ निकुं आकुलतारूप दुःख जाने तब ज्ञानरूप रहना, अर परभावनितें विरागता होय ही होय, यह 卐 प्रगट अनुभवगोचर है, यह ही सम्यग्दृष्टिका चिन्ह है। आगे कहे हैं जो ऐसें न होय अर परद्रव्यनितें आसक्ततारूप रागी होय, अर सम्यग्दृष्टिपणाका अभिमान करे है, सो काहेका सम्य卐 दृष्टि ? वृथा सम्यग्दृष्टिपणाका अभिमान करे है ऐलें काव्यमें कहे हैं । 卐 मन्दाक्रान्ताछन्दः सम्यग्दृष्टिः स्वयमयमहं जातु बन्धो न मे स्यादित्युचानोत्पुलकवदना रागिणोऽप्याचरन्तु । 卐 आलम्बन्तां समितियरतां ते यतोऽद्यापि पापा आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्वरिक्ताः 118 卐 कथं रागी न भवति सम्यग्दृष्टिरिति चेत् फ्र अर्थ-जे पर द्रव्यके विषै रागद्वेषमोहभावकरि तौ संयुक्त हैं अर आपकूं ऐसें माने हैं, जो 5 मैं सम्यष्टि हौं, मेरे कदाचित् कर्मका बन्ध नाहीं होय है, शास्त्रमें सम्यग्दृष्टिकै बन्ध नाहीं का हैं, ऐसें मानिकरि उत्तान कहिये गर्वसहित उंचा किया है अर हर्ष सहित उत्पुलक कहिये 5 रोमांचरूप भया हे मुख जिनिका ऐसे हैं, ते महात्रतादि आचरण करो तथा समिति कहिये वचन विहार आहारकी क्रियाविषै यक्षतें प्रवर्तना, तिसकी परता कहिये उत्कृष्टता ताकूं भी 5 आलम्बन करौ, ते ऐसे प्रवर्तते भी पापी मिथ्यादृष्टि ही हैं । जातें आत्माका अनात्माका ज्ञानतें रहित है, तातें सम्यक् रीते हैं, तिनिकै सम्यकूत्व नाहीं है । फ्र फ्र भावार्थ---जो आपकं सम्यग्दृष्टि माने अर परद्रव्यर्ते राग होय, तौ तार्क सम्यक्त्व काका ? 5 व्रतसमिति पाले तौऊ आपापरका ज्ञान विन्ना पापी ही है। अर आपके बन्ध न होना मानि स्वच्छन्द प्रवर्ते, तौ काहेका सम्यग्दृष्टि ? तातैं चारित्रमोहका राग बन्ध तौ यथाख्यातचारित्र 5 जेते न होय तेते होय ही है। सो जेते राग रहे तेते सम्यग्दृष्टि अपनी निंदा ग करता ही रहे है, ज्ञान होने मात्र तौं बन्धतें छटना नाहीं, ज्ञान भये पीछे तिसहीमें strरूप शुद्धurtney फफफफफफफफफफफफ 卐 卐 卐 卐
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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