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卐 चारित्र बन्धन कटे है । तातें राग छतै बन्ध न होना मानि स्वच्छन्द होना तो मिध्यादृष्टि ही समय है । इहां कोई पूछे व्रतसमिति तौ शुभकार्य हैं, तिनिकूं पालतें पापी क्यों कहै ? ताका समा- 5 धान - जो सिद्धांत में पाप मिथ्यात्वहीकूं कया है, जहां तांई मिथ्याल रहै, तहां तांई शुभ तथा अशुभ सर्वही किया अध्यात्मविषै परमार्थकरि पाप ही कहिये, अर व्यवहारनयकी प्रधानता में 5 व्यवहारी जीवनिकं अशुभ छुडाय शुभमें लगावनेकू कथंचित् पुण्य भी कहिये हैं, स्याद्वादमत5 विषै विरोध नाहीं ।
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बहुरि कोई पूछें परद्रव्यसू राग रहे जेते मिथ्यादृष्टि कहै, सो यानें समझें नाहीं, अविरत - 15 सम्यष्टि आदिकै चारित्रमोहका उदयतें रामादिभाव होय हैं, तार्के सम्यक्त्व कैसे है ? ताका समाधान---जो इहां मिथ्यात्वसहित अनन्तानुबन्धीका राग प्रधानकरि कया है । जातें आपापरका फ ज्ञान श्रद्धानविना परद्रव्य तथा तिसके निमित्ततें भये भाव, तिनिविषै आत्मबुद्धि होय तथा प्रीति अप्रीति होय तब जानिये याकै भेदज्ञान भया नाहीं । जो मुनिपद लेकर व्रतसमिति भी पाले 5 हैं, तहां परजीवनिकी रक्षा तथा शरीर सम्बन्धी यत्नतें प्रवर्तना अपने शुभभाव होना इत्यादि परद्रव्य सम्बन्धी भावनिकरि अपने मोक्ष होना माने, अर परजीवनिका घात होना अयनाचार 卐 प्रवर्तना अपना अशुभभाव होना इत्यादि परद्रव्यनिको क्रियाहीतें अपने बन्ध माने तेते 卐 卐 जानिये - पाकै आपापरका ज्ञान नाहीं भया । बन्ध मोक्ष तौ अपना ही भावनितें था परद्रव्य तौ यामैं विपर्यय मान्या । तातें ऐसें परद्रव्यहीर्ते भला बुरा मानि रागद्वेष करे 5
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निमित्तमात्र था, हैं, जेतें सम्यग्दृष्टि नाहीं है, अर जेतें चारित्रमोह सम्बन्धी रागादिक रहे हैं । तिनिङ्कं तथा
5 तिनिका प्रेरया परद्रव्य सम्बन्धी शुभाशुभ क्रियामें प्रवते है तिस प्रवृत्तिनिक ऐसें माने जो यह कर्मका जोर है, यातें निवृत्त भये मेरा भला है, तिनिकूं रोगवत् जाने है, पीडा न सही जाय तब तिनिका इलाज करनेरूप प्रवर्ते है । तौऊ तिनितें याकै राग न कहिये रोग मानें, तिनितैं काहेका राग ? तिसका मेटनेहीका उपाय करें। सो मेटना भी अपने ही ज्ञानपरिणाम
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