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पर्याप्तापर्याप्ता ये सूक्ष्मा वादराश्च ये चैव ।
देहस्य जीवसंज्ञाः सूो व्यवहारतः उक्ताः ॥३७॥ आत्मख्यातिः–यत्किल बादरसमकेंद्रियद्वित्रिचतुःपंचद्रियपर्याप्तापर्याप्ता इति शरीरस्य संशाः शो जीसंवत्वेनोक्ताः का अप्रयोजनार्थः परप्रसिद्धथा पतघटयद् व्यवहारः। यथा हि कस्यचिदाजन्मप्रसिधैकवृतक भस्य सदितरकुभानमिझस्प प्रबोधनाय योयं घृतकुंभः स मृन्मयो न धृतस्य इति तसिधा कु में घृतकु भन्यवहारः तथास्याज्ञानिनो लोकस्या संसारपसिघ्याशुद्धजीवस्य शुद्धजीवानभिज्ञस्प प्रबोधनाय पोयं वर्णादिमान् जीवः स शानमयो न वर्णादिमयः इति । तत्प्रसिद्ग्या जीवे वर्णादिमद् व्यवहारः।
अर्थ जे सूक्ष्म बादर बहुरि पर्याप्त अपर्याप्त आदि जेती देहळू जीसंज्ञा कही है, ते सर्व ही , सूत्रवि व्यवहारनयकरि कही है।
टीका-निश्चयकरि यह जान, बादर, सूक्ष्म, एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, पंचेंद्रिय,卐 पर्याप्त, अपर्याप्त, ऐसे शरीरकू सूत्रविर्षे जीव संज्ञापणाकरि कहे हैं तहां परकी प्रसिद्धिकरि.. घृतके घटको ज्यों व्यवहार है । सो यह व्यवहार जामें प्रयोजनभूत बस्तु है सो नाहीं ऐसा है, . सो स्पष्ट कहे हैं, जैसे कोई पुरुष ऐसा जो जानै जन्म लगाय घृतका ही घट देख्या, घृतते रीता न्यारा घट देख्या नाही, ताकै समझावनेके अर्थि ऐसें कहिये, जो यहं घृतका घट है सो मांटीमय । है घृतमय नाहीं है, ऐसे तिस पुरुषकै धृतहीका घट प्रसिद्ध है, ताकरि समझावनेवाला भी घृतका 1 घट कहे है, ऐसा व्यवहार है। तैसे ही इस अज्ञानी लोककै अनादि संसारतें लगाय अशुद्ध जीव ही प्रसिद्ध है शुद्धजीवकू नाहीं जाने है, ताकै शुद्धजीवका ज्ञान करवानेके अर्थि ऐसे सूत्रमें कहे हैं, जो यह वर्णादिमान् जीव कहिए है सो ज्ञानमय है, वर्णादिमय नाहीं है। ऐसें तिस । अज्ञानी लोककै वर्णादिमान् प्रसिद्ध है, तिस प्रसिद्धकरि जीवविर्षे वर्णादिमानपणाका व्यवहार सूत्रमें किया है। अब इसही अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
धृतकुंभाभिवानेपि कुभो धृतमयो न चैत । जीवो वर्णादिमजीवजल्पनेपि न तन्मयः ॥८॥
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