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एतदपि स्थितमेव यद्रागादयो भावा न जीवा इति ।
अर्थ- जो घृतका कुंभ हैं ऐसें कहते भी, कुंभ है सो घृतमय नाहीं है, मृत्तिका हीका है । तौ तैसें जीव है सो वर्णादिमान् है ऐसें कहते भी, वर्णादिमान् नाहीं, ज्ञानघन ही है।
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भावार्थ- जो पहले घटहीकूं मृत्तिकाका जाण्या नाहीं अर घृतके भरे घटकूं लोक घृतका घट
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वर्णा
कहते सुर्णे, तहां यह ही जाण्या जो घट घृतहीका कहिये है, ताकूं समझावनेकू मृत्तिकाका घट फ जाननेवाला भी वृतका घट कह कर समझावे है । तैसें ज्ञानस्वरूप आत्माकूं जानें जान्या नाही, अर वर्णादि संरूप ही जीवकूं जाने, तार्के समझानेकूं सूत्रमैं भी कया है - जो यह दिमान् है सो जीव है ऐसा व्यवहार है, निश्चयतें वर्णादिमान् पुद्गल है, जीव है नाहीं, तो ज्ञानवन है ऐसा जानना । आगें कहे हैं, जो वर्णादिकभाव जीव नाहीं है, तैसें ही यह भी ठहरा ही, जो रागादिक भाव हैं ते भी जीव नाहीं हैं। गाथा
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जीव
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मोहणकम्मस्सया दुवरिणदा जे इमे गुणट्ठाणा । ते कह हवंति जीवा ते णिच्चमचेदणा उत्ता ॥ ६८ ॥ मोहनकर्मण उदद्यात्तु वर्णितानि यानीमानि गुणस्थानानि ।
तानि कथं भवंति जीवा यानि नित्यमचेतनान्युक्तानि ॥ ६८ ॥
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शस्थान विशुद्धिस्थानसंयमलब्धिस्थानान्यपि पुद्गलपूर्वकत्वे सति नित्यमचेतनत्वात्पुद्गल एक न तु जीव इति स्वयमायातं । ततो रागादयो भावा न जीव इति सिद्ध । तर्हि को जीव इति चेत् !
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आत्मख्यातिः--- मिध्यादृष्ट्यादीनि गुणस्थानानि हि पौगलिकमोहकर्मप्रकृतिविपाकपूर्वकत्वे सति नित्यमचेतनत्वात् कारणानुविधानि कार्याणीति कृत्वा यवपूर्वका यवा यवा एवेति न्यायेन पुद्गल एव न तु जीवः । गुणस्थानानां नित्य-5 मचेतनत्वं चागमाच्चैतन्यस्वभाव व्याप्तस्यात्मनोतिरिक्तत्वेन विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वाच्च प्रसाध्यं । एवं रागद्वेषमोह
प्रत्यकर्म नोकर्म वर्गवर्गणास्पद्ध काध्यात्मस्थानानुभागस्थानयोगस्थानबंधस्थानोदयस्थानमार्गणास्थानस्थितिबंधस्थानसंक- 5