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________________ ज卐卐म卐卐ाग 1. अर्थ-जे ए गुणस्थान हैं ते मोहकर्म के उदयतें होय हैं, ऐसे सर्वज्ञके आगममें वर्णन किये हैं, की न ते जीव कैसे होय ? नाहीं होय, जात ए नित्य अचेतन कहे हैं। " टीका-जे ए मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थान हैं ते पुद्गलरूप जो मोहकर्मकी प्रकृति ताका उदय। पूर्वक होतें सते नित्य ही अचेतन हैं जातें जैसा कारण होय ताहीका अनुसारी कार्य होय, जैसें यवपूर्वक यव होय हैं, ते यव ही हैं। इस न्यायकरि ते पुद्गल ही हैं, जीव नाहीं हैं। इहां गुणस्थाननिके नित्य अचेतनपणा आगमते सिद्ध है अर चैतन्य स्वभावकरि व्याप्त जो आत्मा तातें ॥ भिन्नपणाकरि भेद ज्ञानी पुरुषनिकरि स्वयं प्राप्य है, इस हेतु आधना! चैतन्यमात्रआत्माके अनु- - भवत ए बाह्य हैं, तातें अचेतन ही हैं । ऐसें ही राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म, वर्गवर्गणा, " स्पर्द्धक, अध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबंधस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान ए सर्व ही पुलकर्मपूर्वक होते संते नित्य " अचेतनपणातें पुद्गल ही हैं, जीव नाहीं है। ऐसा स्वयं आपै आप आया, तातें रागादिकभाव हैं ' ते जीव नाहीं है ऐसा सिद्ध भया। भावार्थ--पुद्गलकर्म के उदयके निमित्तते चैतन्यके विकार भये ते भी पुद्गल ही हैं, जातें शुद्ध, द्रव्यार्थिकनयकी दृष्टिम तौ चैतन्य अभेद है अर याके परिणाम भी स्वाभाविक शुद्धज्ञानदर्शन हैं, ताते जे परनिमित्त विकार भये ते तो चैतन्य सारिखे दीखे हैं, तोऊ चैतन्यकी सर्व अवस्थामैं र व्यापक नाही, तातें चैतन्यशून्य जड हैं, ऐसें जड है सो पुद्गल है ऐसा निश्चय है। आगें पूछे । है, जो वणादिक अर रागादिक जीव नाहीं तौ जीव कौन है ? ताका उत्तररूप श्लोक कहे हैं। __ अनुष्टुप्छन्दः ___अनाद्यनन्तमचलं स्वसंवेद्यमिदं स्फुटम् । जीवः स्वयं तु चैतन्यामुच्चैश्चकचकायते ॥६॥ अर्थ-जीव है सो यह चैतन्य है, सो यह आपे आप अतिशयकरि चमत्काररूप प्रकाशमान है।” कैसा है ? अनादि है, काहू कालविर्षे नवीन नाहीं उपजा है । बहुरि अनंत है, जाका काहू काल- .. if $ 乐乐 乐乐 乐乐 乐乐 乐乐 乐
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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