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अर्थ-- आत्मा है सो जिस शुभाशुभ अपने भावकू करे है, सो तिसभावका कर्ता निश्चय
5 मैं होय है, बहुरि सो भाव तिसका कर्म होय है, बहुरि सो हो आत्मा तिस भावरूप कर्मका वेदक
भोक्ता होय है ।
टीका - इस लोकविषै वाता है सो अनादि अज्ञानतें परका अर आत्माका एकपणाका 5 निश्चयकरि, तीव्र मंद स्वादरूप जे पुद्गलकर्मकी दोय दशा, तिनिकरि यद्यपि आप अचलित विज्ञानघनरूप एकस्वादस्वरूप है, तौऊ स्वादकू भेदरूप करता संता शुभ तथा अशुभ जो 5 अज्ञानरूप भाव ताकू' करे है सो आत्मा तिस काल तिल भावतें तन्मयपणाकरि तिस भावका 5 व्यापकपणाकरि तिस भावका कर्ता होय है। बहुरि सो वह भात्र भी तिस काल तिस आत्माके 5 तन्मयपणाकर, ति आमाके व्याप्य होय है । तातें ताका कर्म होय है । बहुरि सो ही आत्मा फ्र 5 तिस काल तिस भावतें तन्मयपणाकर, तिस भात्रका भावक होय है, तातें arer अनुभवन 5 करनेवाला भोक्ता होय है । बहुरि सो भाव भी तिस काल तिल आत्माके तन्मयपणाकरि, 5 तिस आत्माके भावनेयोग्य होय है । तातें अनुभवने योग्य होय है । ऐसें अज्ञानी है। सो भी परभावका का नाहीं है ।
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भावार्थ - अज्ञानी भी अपना अज्ञानभावरूप शुभाशुभ भावनिहीका कती अज्ञानावस्थामै फ है। परद्रव्यके भावका तौ कर्ता कदाचित् भी नाहीं है। आगे कहे हैं, जो परभाव कोई ही करि करनेकू समर्थ न हूजिये है यह न्याय है । गाथा
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जो जहमि गुणो दव्वे सो अण्ण दु ण संकमदि दब्वे ।
सो अण्णम संकेतो कह तं परिणामए दव्वं ॥ ३५ ॥
यो यस्मिन् गुणो द्रव्ये सोन्यस्मिंस्तु न संक्रामति द्रव्ये । सोन्यदसंक्रांतः कथं तत्परिणामयति द्रव्यं ॥ ३५॥
प्रभू