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________________ + + + + + + आत्मख्याति:-यथैव राजा पंच योजनान्यभिव्याप्य निष्क्रामतीत्वेकस्य पंचयोजनान्यभिव्याप्तुमशक्यत्वाद् व्य 卐 वहारिणां बलसमुदाये राजेवि व्यवहारः। परमार्थतस्त्वेक एव राजा । तथैव जीवः समन रागग्राममभिव्याध्य प्रवर्तित इत्येकस्य समग्र रामग्राममभिव्याप्तुमशक्यत्वाद् व्यवहारिणामध्यबसानादिष्वन्पभावेषु जीव इति व्यवहारः। परमार्थम तस्त्वेक एव जीवः । यद्येवं तर्हि कि लक्षणोसावेकर्षकोत्कीर्णः परमार्थजीव इति पृष्टः प्राह ___ अर्थ-डेसै कोई राजा सेनासहित निसरया तहां व्यवहारकरि सेनाके समुदायकू ऐसा 卐 कहिये है, जो यह राजा निसा , तहां निश्चयतें विचारिये तब सेनावि राजा तो एक ही है।। तैसे ही यह अध्यवसान आदि अन्यभाव हैं तिनिकू जीव है ऐसा सूत्रविर्षे कया है, सो व्यवहार- - भनयका वचन है। निश्वयतें विचारिये तो तिनिविर्षे जीव तो एक ही है।। ____टीका—जैसे कहिये हैं, जो यह राजा पांच योजनमें व्यापिकरि नीसरे है, तहां निश्चयकरि विचारिये तो एक राजाके पांच योजन व्यापनेका असमर्थपणा है, तौऊ व्यवहारी लोकनिका" सेनाका समुदायविर्षे राजा ऐसा कहनेका व्यवहार है। परमार्थतें तो राजा एक ही है, सेना राजा नाहीं । तैसे ही यह जीव समस्त जे रागका ठिकाना हैं तिनिळू व्यापिकरि प्रवर्ते है, # निश्चयकरि विचारिये तक एक साल के ठिकाने व्यापने का अलमर्थपणा है। तौऊ व्यव- 5 हारी लोकनिके अध्यवसानादिक अन्यभावनिविर्षे ए जीव हैं ऐसा व्यवहार प्रवर्ते है। परमार्थत 卐 तो जीव एक ही है। अध्यवसानादिभाव हैं ते जीव नाहीं हैं। आगें पूछे है, जो ए अध्यवसा नादिक भाव हैं ते जीव नाहीं हैं, तो जीव एक टंकोत्कीर्ण परमार्थस्वरूप कैसाक है ? याका लक्षण + कहा है ? ऐसे पृछ उत्तर कहे हैं । गाथा अरसमरूवमगंधं अञ्चत्तं चेदणागुणमसह। जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिदिसंठाणं ॥४९॥ अरसनरूपमगंधमव्यक्तं चेतनागुणमशब्दं । जानीहि अलिंगग्रहणं जीवमनिर्दिष्टसंस्थानं ॥१९॥ + 乐 乐乐 乐乐 乐乐 乐 क卐भ
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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