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अर्थ- ज्ञानी जन हैं ते कर्मतैं अर कर्म के फलतें अत्यन्त विरक्त भावनाकूं निरंतर भावना
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करि, बहुरि समस्त अज्ञानचेतना का नाशकूं स्पष्ट प्रकटपणें नृत्य कराय अर अपना निज रस्तें पाया
स्वभावरूप जो ज्ञानचेतना ताकूं, आनंद सहित जैसे होय तेसें पूर्ण करि नृत्य करावते संते इहांतें 5
आगे प्रशमरस जो कर्मका अभावरूप आत्मिकरस अमृतरस ताहि सदाकाल पीवो। यह ज्ञानीजननिकूं प्रेरणा है ।
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भावार्थ - यह पहले तो तीन कालसंबंधी कर्मका कर्तापणारूप कर्मचेतनाके गुणवास भंग
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रूप त्यागको भावना कराई । पोछे एक सौ अठतालोस कर्मप्रकृतिका उदयरूप कर्मका फलका त्यागकी भावना कराई है । ऐसें अज्ञानचेतनाका प्रलय कराय अर ज्ञानचेतनाएँ प्रवर्तनेका 5
उपदेश किया है। यह ज्ञानचेतना सदा आनंदरूप अपना स्वभावका अनुभवरूप है । ताकू
ज्ञानी जन सदा भोगयो । श्रीगुरुनिका उपदेश हैं। आगें यह सर्व विशुद्धज्ञानका अधिकार है क 15 सो ज्ञानकूं कर्ता भोकापणाते भिन्न दिखाया अब अन्य द्रव्य अर अन्य द्रव्यनिके भाव तिनितें ज्ञानकू न्यारा दिखावें हैं । ताकी सूचनिकाका काव्य है ।
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स्रग्धराछन्दः
अत्यन्तं भारतिमविरतं कर्मणस्तत्फलाच प्रस्पष्टं नाटयित्वा प्रलयनमखिलाज्ञानसञ्च तनायाः | पूर्ण कृत्वा स्वभावं स्वरसपरिगतं ज्ञानसञ्च तनां स्वां सानन्दं नाटयन्तः प्रशमरसमितः सर्वकालं पिबन्तु ॥ ४० ॥
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वंशस्थ च्छन्दः
इतः पदार्थावगुण्ठनात् विना तेरेकमनाकुलं ज्वलन् ।
समस्तवस्तुव्यतिरेकनिश्चयाद्विवेचितं ज्ञानमिहावति ॥४१॥
अर्थ --- इहां आगे इस ज्ञानके अधिकारविधै समस्त वस्तुनितें व्यतिरेक कहिये भिन्नका 5 निश्चयतें विवेचित कहिये न्यारा किया जो ज्ञान सो अवस्थान करे है, निश्चल तिष्ठे है । कैसा 5 हुवा तिष्ठे है ? पदार्थकी जो प्रथना कहिये फैलना
ताका अवगुंठन कहिये ज्ञेयज्ञानसंबंधकरि
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