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इत्यादिकांस्तु विविधान् सर्वान् भावान्नेच्छति ज्ञानी ।
ज्ञायकभावो नियतः निरालंबश्च सर्वत्र ॥२२॥ आत्मख्यातिः-एवमादयोऽन्येऽपि बहुप्रकाराः परद्रव्यस्य ये मावास्तान् सर्वानेव नेच्छति ज्ञानी तेन मानिनः १४२ सर्वेषामपि परद्रन्यभावानां परिग्रहो नास्ति इति सिद्धं ज्ञानिनोऽत्यंतनिप्परिग्रहत्वं । अथैवमयमशेषभावांतरपरिगृह
शून्यत्वात् उद्वांतसमस्वाज्ञानः सर्वत्राप्यत्यंतनिरालंबो भूत्वा प्रतिनियतटंकोत्कीर्णकनायकभावः सन् साक्षाद्विज्ञानधनमात्मानमनुभवति । ___ अर्थ-इस प्रकारकू आदि लेकरि अनेक प्रकारके जे सर्वभाव, तिनिकू ज्ञानी नाही इच्छे,
है। जातें नियमकरि आप ज्ञायकभाव है, सात सर्वविषं निरालब है। ___टीका-याही पूर्वोक्त प्रकारकू आदि लेकरि अन्य भी बहुत प्रकार परद्रव्यके जे स्वभाव हैं, तिनि सर्वहीकू ज्ञानी नाही इच्छे है। तिस कारणकरि ज्ञानीक सर्व ही परद्रव्यनिके भावनिका ..
परिग्रह नाही है। ऐसें ज्ञानीका अत्यंत निष्परिग्रहपणा सिद्ध भया । अब याप्रकार यह ज्ञानीम + समस्त अन्य भावनिका परिग्रहका परिग्रह करि शून्यपणातें बन्या है उगल्या है समस्त अज्ञान ।।
जाने ऐसा भया संता सर्वत्र अतिनिरालंबन स्वरूप होय करि न्यारा ही एक टंकोत्कीर्ण ज्ञायक-" 卐 भाव भया संता साक्षात् विज्ञानधन आत्माकू अनुभव है।
___ भावार्थ-पूर्वोक्त प्रकार आदि लेकरि सर्व ही अन्य भावनिका ज्ञानीकै परिग्रह नाही है। जाते सर्व हो परभावनिकू हेय जाने, तब तिनकी प्राप्तिकी इच्छा नाहीं। उदय आयेकू अनासक्त भया भोगवे है। संसार देह भोगनिसूरागरूप इच्छा विना परिग्रहका अभाव कहा अब इस अर्थका कलशारूप काव्य कहे हैं।
स्वागताछन्दः पूर्वबद्धनिजकर्मविपाकाल शानिनो यदि भवत्युपभोगः ।। तभवत्वय च रागवियोगाव ननमेति न परिग्रहभावम् ।।१४॥
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