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________________ ममया १३६ + एदेहिय णिवत्ता जीवट्ठाणा दु करणभूदाहिं। पयडीहिँ पुग्गलमईहिं ताहिं कह भरणदे जीवो ॥६६॥ एक वा दे त्रीणि च चत्वारि च पंचेद्रियाणि जीवाः । वादरपर्याप्तेतराः प्रकृतयो नामकर्मणः ॥६५॥ एताभिश्च निवृत्तानि जीवस्थानानि करणभूताभिः । प्रकृतिभिः पुद्गलमयीभिस्ताभिः कथं भण्यते जीवः ॥६६॥ ___आत्मख्यातिः--निश्चयतः कर्मकरणयोरभिन्नत्वात् यधेन क्रियते तसदेवेति कन्या यथा कनकपत्रं कनकेन क्रिय-... माणं कनकमेव न त्वन्यत् । तथा जीवस्थानानि वादरमहद्रियद्वित्रिचतु:पंचेंद्रियपर्याप्तापर्याप्ताभिधानाभिः पुद्गल-क मयीमिः नामकर्मप्रतिभिः क्रियमाणानि कुदगल हन नातु जीया : बामकर्मप्रकृतीनां पुद्गलमयत्वं चागमप्रसिद्धं दृश्य-.. मानशरीराकारादिमूर्तकार्यानुमेयं च । एवं मंधरसस्पर्शरूपशरीरसंस्थानसंहननान्यपि पुद्गलमयनामझर्मप्रकृतिनिसत्वे सति तदन्यतिरेकाज्जीवस्थान रेवोक्तानि । ततो न वर्णादयो जीव इति निश्चयसिद्धांतः ।। ___ अर्थ-एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, पंचेंद्रिय जीव हैं, बहुरि चादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, । अपर्याप्त ए जीव हैं, ते नामकर्मकी प्रकृति हैं। इनि प्रकृतिनिकरि करणस्वरूप होयकरि जीवस्थान कहिये जीवसमास रचे हैं, ते ए प्रकृति पुलमय है, सो इनिकरि रचेकू जीव कैसे काहिये। टीका-निश्चयनयकरि कर्म अर करण अभेदभाव है, इस न्यायकरि जो जाकरि कीजिये .. सो वह वही है। ऐसे करते जैसा सुवर्णका पत्र सुवर्णकरि किया सो वह पत्र सुवर्ण ही है, अन्य। तो किछू नाहीं । तेसैं ए जीवस्थान हैं ते आदर, सूक्ष्म, एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, पंचेंद्रिय ते सर्व पर्याप्त अपर्याप्त हैं, ते सर्वही है नाम जिनिका ऐसी पुद्गलमयी नामकर्मकी " प्रकृति है, ते करणरूप हैं, तिनिकरि किये हैं, तातें पुद्गल ही हैं, ते जोव नाहीं हैं। बहुरि ॥ 听听 听听 卐 卐
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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