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________________ 5 आपपरके जाननहारी ज्ञातृता ही है ज्ञातापणा ही है अर कर्मनो कर्मपुद्गलके ही हैं ऐसी आपहीतें 5 तथा परके उपदेशादिकर्ते भेदविज्ञान है मूल जाका ऐसी अनुभूति उपजसी तिसही काल प्रतिबुद्ध होसी ज्ञानी होसी । मय फु 5 श्रा भावार्थ ---यहु आत्मा जनताई ऐसें जाने है, जो स्पर्श आदिक तौ पुद्गलमें है अर पुद्गल स्पर्शादिभ्य है। से ही जीव तो कर्मनीकर्म है, अर कर्मनोकर्ममय जीव है तबताई तो अज्ञानी 卐 5 है। अर जब यह जाने, जो आत्मा तो ज्ञाताही है अर कर्मनो कर्मपुद्गलकेही है तबही ज्ञानी होय है । जैसे आरसे में अग्निकी ज्वाला दीखे तहां ऐसा जानिये, जो ज्वाला तो अग्निविषै ही है। आरामै पैठी नाहीं । अर आरसा दीखे है, सो आरसाकी स्वच्छता ही है । ऐसें कर्म नोकर्म आपमें पैठे नाहीं । आत्माकी ज्ञानस्वच्छता ऐसे ही है, जामैं ज्ञेयका प्रतिविंव दीखे ऐसें कर्मनोर्म ज्ञेय हैं ते प्रतिभासे हैं, ऐसा अनुभव आत्माकै भेदज्ञानरूप के तो स्वयमेव होय के 5 देशतें होय, तिसही काल ज्ञान्दी होय है । अब याही अर्थ के कलरूप काव्य कहे हैं । मालिनी छन्दः उप ३४ फफफफफफफफफफफ 卐 फफफफफफफफफफफफ कथमपि हि लभन्ते भेदविज्ञानमूचलितमनुभूति ये स्वतो वान्यतया । फिलन निमभानसभायस्वभाव कुरवदविकारा संततं स्युस्त एव ॥ २१॥ 卐 ननु कथमयमप्रतिबुद्धो लक्ष् 卐 अर्थ – ये पुरुष आपहीतैं तथा परके उपदेशतें कोई प्रकारकरि भेदविज्ञान है मूल उपत्तिकारण 卐 जाका ऐसी अविचल निश्चल अपने आत्मा अनुभूति पाये हैं, तेही पुरुष आरसेकी ज्यों आप मैं प्रतिबिंबत भये जे अनंतभावनिके स्वभाव तिनिकरि निरंतर विकाररहित होय हैं, ज्ञानमें 卐 卐 ज्ञेयनिके आकार प्रतिभा तिनिकरि रागादिविकारकूं नाहीं प्राप्त होय है । 卐 मैं शिष्य प्रश्न करे है, जो यह अप्रतिबुद्ध अज्ञानी कैसे लखिये ताके चिन्ह कहौ । ताका फ उत्तररूप गाथा कहे हैं। गाथा 卐
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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