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यदा विमुचति चेतयिता कर्मफलमनंतकं ।
तदा विमुक्तो भवति ज्ञायको दर्शको मुनिः ॥८॥ आत्मख्यातिः—यावदयं चेतयिता प्रतिनियतस्वलक्षणानि नाद प्रकृतिस्वभावमात्मनो बंधनिमित्तं न मुंचति
卐प्राभूत में तावत्स्वपरयोरेकत्वज्ञानेनाज्ञायको भवति । स्वपरयोरेकत्वदर्शनेन मिथ्यादृष्टिभवति। स्वपरपोरेकत्वपरिणत्या चासयतो है
भवति । तावदेव परात्मनोरेकत्वाभ्यासस्य करणारकर्ता भवति । यदा स्वयमेव प्रतिनियतस्वलक्षणनि नात् प्रकृतिस्वभावमात्मनो धनिमित्त मुंचति तदा स्वपरयोविभागज्ञानेन ज्ञायको भवति । स्वपरयोविभागदर्शनेन दर्शको भवति + स्वपरयोविभागपरिणत्या च संयतो भवति तदैव च परात्मनोरेकत्वाभ्यासस्याकरणाइकर्ता भवति ।
अर्थ--यह आत्मा चेतयिता जेतें प्रकृतिके निमित्ततें उपजना विनशना न छोडै तेते अज्ञायक .. भया संता मिथ्यादृष्टि असंयमी होय है । बहुरि जिस काल आत्मा अनंत जो कर्मका फल, ताकू
छोडे है, तिस काल बंधसूरहित होय-विमुक्त होय, ज्ञायक दर्शक कहिये ज्ञाता द्रष्टा मुनि ॥ + संयमी होय है। - टीका--जेतें यह चेतयिता आत्मा अपना अर प्रकृतिका न्यारा न्यारा स्वभावरूप लक्षणका
भेदज्ञानका अभावतें आपके बंधका निमित्त जो प्रकृतिका स्वभाव, ताही न छोडे है, तेतें अपना + " अर परका एकपणाका ज्ञानकरि अज्ञायक होय है । बहुरि अपना परका एकपणाका दर्शन श्रद्धानम करि मिथ्यादृष्टि होय है। बहुरि अपनी अर परकी एकपणाकी परिणतिकरि असंयत होय है। __बहुरि तेते ही परका अर आत्माका एकपणाका अध्यवसान करनेत कर्ता होय है । बहुरि जिस- .. + काल यह ही आत्मा आपका अर प्रकृतिका न्यारा न्यारा स्वलक्षणका निर्णयरूप ज्ञानतें आपके क 1- बंधका निमित्त जो प्रकृतिका स्वभाव ताहि छोडे है, तिस काल अपना अर परका विभागका । " ज्ञानकरि ज्ञायक होय है। बहुरि अपना अर परका विभागका दर्शन श्रद्धानकर दर्शक होय है। " १६८ बहुरि अपना अर परका विभागकी परिणतिकरि सँयत होय है। तिस ही काल परका अरआपक. एकपणाका अभ्यास नाहीं करनेते अकर्ता होय है।
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