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निमित्ततें उपजे विनसे है, आत्माके परिणामके निमित्तते तैसें ही परिणमे है। ऐसें दोऊकै + अप आत्माकै अर प्रकृतिकै परस्पर निमित्ततें बंध होय है । बहुरि तिस बंधकरि संसार उपजे है।।
टीका-यह चेतयिता आत्मा है सो अनादि संसारतें लगाय अर आपका अर बंधका न्यारा 'न्यारा लक्षणका भेदज्ञान न होनेकरि परके अर आत्माके एकपणाका निश्चित अभिप्रायके म ... करने परद्रव्यका कर्ता भया संता प्रकृति जो ज्ञानावरणादि कर्मकी प्रकृति, ताके निमित्तते । की उपजना विनशना करे है । बहुरि प्रकृति भी आत्माके निमित्ततें उत्पत्ति-विनाशकू प्राप्त होय +है-आत्माके परिणामके अनुसार परिणमे है । ऐसें इनि आत्माकै अर प्रकृतिके दोऊनिके पर
मार्थतें कर्ताकर्मपणाका भावका अभाव होतें भी परस्पर निमित्तनैमित्तिकभावकरि दोऊहीके "
बंध देखिये है। बहुरि तिस बंधतें संसार है, ताहीत दोऊकै कर्ताकर्मका व्यवहार प्रवर्ते है। ' + भावार्थ-आत्माकै अर प्रकृतिक परमार्थते कर्ताकर्मपणाका अभाव है, तौऊ परस्पर निमित्त- ..
नैमित्तिकभावतें कर्ताकर्मका भाव है, तातें बंध है, बंधते संसार है ऐसा व्यवहार है। आगे को म कि जेतें आत्मा प्रकृतिके निमित्ततें उपजना विनशना न छोड़े, तेते अज्ञानी मिथ्यादृष्टि असंयत 5 है । गाथा---
जाएसो पयडियर्टी चेदगो ण विमुंचदि। अयाणओ हवे ता मिच्छादिछी असंजदो ॥७॥ जदा विमुंचदे चेदा कम्मफलमणतयं । तदा विमुत्तो हवदि जाणगो पस्सगो मुणी ॥८॥
यावदेष प्रकृत्यर्थ चेतयिता नैव विमुचति । अज्ञायको भवेत्तावन्मिथ्यादृष्टिरसंयतः ॥७॥
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