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________________ }5 hhhhh - जान्याहूया प्रयोजनवान है। बहुरि जे कई पुरुष प्रथम, द्वितीय आदि अनेक पाकको परंपराकरि ग पच्यमान जो वह ही सुवर्ण तिसस्थानीय जो वस्तुका अनुकृष्ट मध्यनभाव ताकू अनुभवे हैं। तिनिके卐 अंतके पाककरी उतरथा जो शुद्ध सुवर्ण तिस स्थानीय वस्तुका उत्कृष्टभाव ताका अनुभवकरि .. शून्यपणातें अशुद्धद्रव्यका आदेशोपणाकरि दिखाया है, न्यारा न्यारा एकभावस्वरूप अनेकभाव। जानें ऐसा व्यवहारनय है। सो ही विचित्र अनेक जे वर्णमाला तिसस्थानीयपणातें जान्याहुवा ।। तिसकाल प्रयोजनवान है, जाते तीर्थ अर तीर्थका फल इनि दोऊनिका ऐसा ही व्यवस्थितपणा । है। तीर्थ तौ जाकरि तरिये ऐसा व्यवहारधर्म । बहुरि जो पार होना सो व्यवहारधर्मका फलक अपना स्वरूपका पावना सो तीर्थफल है । इहां उक्त च गाथा-जो जिगमयं पवजह, ता मा क्वहार णिच्छये मुयह । एकण विगा छिन्नइ, तित्यं अपगेग उगतवं । अर्थ-आचार्य कहे हैं॥ - जो हे पुरुष हौ ! तुम जो जिनमतकू प्रवर्तावो हौ तौ व्यवहार अर निश्चय इनि दोऊ नयनिकू मति .. छोडौ। जाते एक जो व्यवहारनय ताविना तो तीर्थ कहिये व्यवहारमार्ग ताका नाश होयगा। 卐 बहुरि अन्येन कहिये निश्चयनय विना तत्वका नाश होयगा। टीका-लोकमैं सोनाके सोलहवान प्रसिद्ध है। तहां पंवरहबानताई तो तामैं चूरी आदि +परसंयोगकी कालिमा रहे है। तेतें अशुद्ध कहिये हैं। बहुरि ताव देते देते अंतका तावतें उतरे तव ॥ 1 सोलहवान शुद्ध सुवर्ण कहावै है। तहां जिनिकै सोलहवानका सुवर्णका ज्ञान श्रद्धान तथा प्राप्ति .. " भई तिनिकै तौ पंधरैवानताई का किछु प्रयोजनवान् है नाहीं। बहुरि जिनिकै सोलहवानका शुद्ध । 4 सुवर्णकी प्राती जेते न होय तेते पंधरेवानताईकाभी प्रयोजवान् है। तैसँही यह जीवनामा - " पदार्थ है सो पुद्गलके संयोगमैं अशुद्ध अनेकरूप होय रह्या है। ताका सर्वपरद्रव्यतें भिन्न एक ज्ञायक卐 मात्रका जिनिकै ज्ञान श्रद्धान तथा ताका आचरणरूप प्राप्ति भई, तिनिकै तौ पुद्गलसंयोगजनित 1- अनेकरूपपणाके कहनहारा जो अशुद्धनय सो किछू प्रयोजनवान् है नाहीं। बहुरि जेते शुद्धभावकहीकी प्राप्ती न भई तेतें जेती अशुद्धनयकी कथनी है तेती यथोपदवी प्रयोजनवान है। तहाँ जेते , 乐 乐乐
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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