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________________ पर यथार्थज्ञानश्रद्धानको प्राप्तीरूप सम्यग्दर्शनको प्राति न भई होय, तेते तो यथार्थ उपदेश जिनितें "पायीये ऐसें जिनवचनका सुनना, धारना तथा जिनवचनके कहनेवाले श्रीजिनगुरु तिनिकी भक्ति 卐 जिनबिंबका दर्शन इत्यादि व्यवहारमार्ग में प्रवर्तना प्रयोजनवार है। .. बहुरि जिनिके श्रद्धान, शान तो भया अर साक्षात्प्राप्ति न भई तेतें पूर्वोक्तकार्यभी अर जपरद्रव्यका आलंबन छोडनेरूप अणुव्रत महावतका ग्रहण तथा समिति गुप्ति पंचपरमेष्ठीका ध्यान- + - रूप प्रवर्तना तथा तैसें प्रवर्त्तनेवालेकी संगति करना विशेषज्ञान करनेकू शास्त्रनिका अभ्यास "करना इत्यादि व्यवहारमार्गविर्षे आप प्रर्वतना अर अन्य प्रवर्त्तावना ऐसा व्यवहारनयका उपदेश' तथा अंगीकार करना प्रयोजनवान् है। बहुरि व्यवहारनय कथंचित् असत्यार्थ कहनेते सर्व सत्यार्थ "जानि छोडें तौ शुभोपयोगरूप व्यवहार छोडे अर शुद्धोपयोगकी साक्षात् प्राप्ती न भई तातें : 卐 अशुभोपयोगहीमें उलटा आय भ्रष्ट हुवा सन्ता यथाकचित् स्वेच्छा प्रवर्ते तव नरकादिगति प्राप्त ।. होय परंपरा निगोद प्राप्त होय संसारहीमें भ्रमै। तात साक्षात् शुद्धनयका विषय जो शुद्ध 卐 आत्मा ताकी प्राप्ति न होय तेते व्यवहारभी प्रयोजनवान है। ऐसा स्याद्वादमत में श्री गुरुनिका 1- उपदेश है । इस अर्थका कलशरूप काव्य टीकाकारका कह्या है। मालिनीछन्दः उभयनयविरोधध्यंसिनि स्यापदांके, जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः । सपदि समयसारं तं परंज्योतिरुच्चै, रनवमनयपक्षाक्षुष्णमीक्षत एव ॥१॥ 卐 अर्थ-निश्चयव्यवहाररूप जे दोय नय तिनिके विषयके भेदतें परस्पर विरोध है, तिस ॥ विरोधका दूर करनहारा स्यात्पदकरि चिन्हित जो जिनभगवानका वचन तिसविर्षे जे पुरुष रमे हैं .... ॐ प्रचुरप्रीतिसहित अभ्यास करे हैं ते स्वपं कहिये स्वयमेव विनाकारण आपआप वम्या है मोह कहिये 5 1. मिथ्यात्वकर्मका उदय जिनि ते पुरुष इस समयसार जो शुद्ध आत्मा अतिशयरूप परमज्योति प्रकाशमान ताहि शीघ्र ही अवलोकन करे हैं। कैसा है समयसार ? अनव कहिये नवीन उपज्या । 卐
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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