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________________ பிகழக5*தமிழமிழ** 卐 卐 சு ५ नचायकरि जीव अर अजीव दोऊ प्रगटपणें जेते न्यारे न भये, तेतें यह ज्ञातृद्रव्य आत्मा है सो समस्त पदार्थनिवि व्याप्यकरि अर प्रगट विकासरूप व्यक्त होती जो चैतन्यमात्र शक्ति ताकरि 'फ आपआप अतिवेगतें अतिशयकरि प्रगट होता भया । प्रा 卐 卐 5 फ्र भावार्थ- जीव अजीव दोऊ अनादितें संयोगरूप हैं। सो अज्ञानतैं एकसे दीखे हैं । तहां भेदज्ञानके अभ्यासकरि जेते प्रगट न्यारे न भये, जीव कर्मनिर्तें छूटि मोक्ष प्राप्तन भया, तेतैं यह जीव 5 ज्ञातृद्रव्य है, सो अपनी ज्ञानशक्तिकरि समस्त वस्तूकूं जानिकरि अतिवेगतें आप प्रगट भया । इहां तात्पर्य यह, जो सम्यग्दृष्टि भये पीछे जेतें केवलज्ञान न उपजे है, तेतैं तौ सर्वज्ञके आममतें भया 5 श्रुतज्ञान ताकरि, समस्त वस्तूका संक्षेप तथा विस्तारकरि परोक्षज्ञान हो है, तिस ज्ञानस्वरूप आत्माका अनुभव होय है, सोही याका प्रगट होना है । बहुरि जब घातिकर्मका नाश केवलज्ञान उपजे है, तब समस्त वस्तूकं साक्षात् प्रत्यक्ष जाने है । ऐसें ज्ञानस्वरूप आत्माकूं साक्षात् अनु- 5 भवे है, सोही याका प्रगट होना है । ऐसें मोक्ष भये पहलेही आत्मा प्रकाशमान होहै, यह भी जीव अजीवका न्यारा होनेका प्रकार है । ऐसें जीव अजीवका पहला अधिकार पूर्ण भया । फ ari टीकाकार पहले रंगभूमिका स्थल न्यारा कहि पीछे कही थी, जो नृत्यके अखाडेमें जीव अजीव दोऊ एक प्रवेश करे हैं, दोऊ एकपणाका स्वांग रचा है। तहां भेदज्ञानी सम्यग्दृष्टिपुरुष अपने सम्यग्ज्ञान दोऊकूं लक्षणभेदतें परीक्षाकरि दोय जाणि लिये, तब स्वांग होय चुक्या, दोज 卐 न्यारे न्यारे होय अखाडामैंसूं बाहिर भये, ऐसा अलंकारकरि वर्णन किया । 5 फ्र 卐 卐 ऐसें इस समयसार थकी आत्मरूपातिनामा टीकाकी वचनिकाविषै पहला जीवाजीवाधिकार पूर्ण भया । 卐 जीव अजीव अनादि संयोग मिलै लखि मूढ न आतम पावें । 卐 सम्यक् भेद विग्यान भये भिन्न गर्दै निजभाव सुदावें ॥ श्रीगुरुके उपदेश सुनैरु भले दिन पाय अग्यान गमावें । 卐 ते जगमांहि महंत कहाय व शिव जाथ सुखी निति थावें ॥१॥ 5 फ्र फफफफफ 卐 卐 卐 १
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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