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9 भावार्थ-सम्याष्टिक पूर्वोक्त सर्व संबंध होते भी रागका संबंधका अभाव है, तातें कर्मबंधक म नाही होय है। याका समर्थन पूर्वे कह ही आये हैं अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः - लोकः कर्म ततोऽस्तु सोऽस्तु न परिस्पन्दात्मकं कर्म तव तान्यस्मिन्करणानि सन्तु चिदचियापादनं चास्तु तत् ।
रागादीनुपयोगभूमिमनयन् शनं भवन्केवलं बन्धं नैव कुतोऽप्युपत्ययमहो सम्यग्गामा धक
अर्थ-तिस कारण सो कर्मनिकार अश्या पूर्वोक्त लोक है सो होहू, कुहुरि सो मन मन कायके चलनस्वरूप कर्मरूप योग है सो होहू, बहुरि ते पूर्वोक्त करण होहू, बहुरि सो पूर्वोक्स - चैतन्य अचैतन्यका व्यापादान कहिये घात करना होहू, यह सम्यग्दृष्टि है सो रागादिक उपयोग-5
भूमिमैं नाहीं प्रात करता संता अर केवल एक ज्ञानरूप होता संता, तिनि पूर्वोक्त कोई ही " कारणते बंधकू प्राप्त नाही होय है, यह निश्चल सम्यग्दृष्टि है, अहो ! देखो !! यह सम्यग्दर्शनकी 卐 अद्भुत महिमा है।
इहां सम्यग्दृष्टिका अद्भुत माहात्म्य कह्या है । अर लोक, योग, करण, चैतन्य अचैतन्यका ॥ घात प बंधके कारण न कहे हैं। तहां ऐसा मति जानू जो परजीवकी हिंसातें बंधन कहा, " तातें स्वच्छंद होय हिंसा करना । इहां अबुद्धिपूर्वक कदाचित् परजीवका घात भी होष, साते अंध न होय है । अर जहां बुद्धिपूर्वक जीव मारनेके भाव होहिंगे तहां तो अपने उपयोगते रामाविकका सद्भाव आवेगा, तहां हिंसातें बंध होयहीगा। जहां जीवकूजीवावनेका अभिप्राय होय, ताकू .. भी निश्चयनयमें मिथ्याख कहे हैं, तो मारनेका अभिप्राय मिथ्यात्व क्यों न होगा ? तते कायम
नकू नयविभागकरि यथार्थ समझि श्रद्धान करना। सर्वथा एकांत तो मिथ्यात्व है। अब इस " अर्थ दृढ करनेकू व्यवहारनयकी प्रवृत्ति करावनेक काव्य काहे हैं।
पृथ्वीछन्दः तमपि न निरर्गलं चरितमीक्षते शानिनां वदायतनमेव सा किल निरर्गला व्यापतिः । अकामतकर्म तन्मतमकारणं शानिना इयं न हि विरुभ्यो किस करोति जानाति च ॥
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