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एकस्य मूढ़ो न तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षपाती।
यस्तस्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिचिदेव ॥२६॥ + अर्थ-एक नयके तौ जीव मूढ हे मोही है, बहुरि दूसरे नयके मूढ नाहीं है यह पक्ष है। " ऐसे ये दोऊ ही चैतन्यविर्षे पक्षपात हैं। बहुरि जो तत्ववेदी है सो पक्षपातरहित है, ताका चित् 卐 है सो चित् ही है, मोही अमोही नाहीं है।
एकस्य रक्तो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपाती ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिञ्चिदेव ॥२७॥ - अर्थ-एकनयके तो यह जीव रक्त कहिये रागी है ऐसा पक्ष है, बहुरि दूसरे नयके रक्त नाहीं " है ऐसा पक्षपात है । सो ए दोज ही चैतन्यविर्षे नयके पक्षपात हैं। बहुरि जो सत्ववेदी है सो 卐 पक्षपातरहित है, ताकै पक्षपात नाहीं है, ताकै जो चित् है सो चित् ही है।
एकस्य दुष्टो न तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षपातौ । यस्तत्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्सास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥२८॥ एकस्य कर्ता न तथा परस्य चिति द्वयोपिति पक्षपाती। यस्तत्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥२६॥ एकस्य भोक्तान तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षपाती। यस्तच्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥३०॥ एकस्य जीवो न तथा परस्य चिति द्वपीविति पक्षपाती। वस्तववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥३१॥ एकस्य सूक्ष्मो न तथा परस्य चिति दोषिति पक्षपाती। यस्तम्ववेदी न्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खल चिञ्चिदेव ॥३२॥ एकस्य हेतुर्न तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षपाती। यस्तत्ववेदी न्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिञ्चिदेव ।।३३।।
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