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बहुरि---जो प्रीतिरूप राग है सो सर्वही जीवक नाही है। जातें यह पुद्गलपरिणाममय म है, ऐसे होते अपनी अनुभूतितें भिन्न है ॥९॥ बहरि जो अप्रीतिरूप द्वेष है सो सर्वही जीवकै ॥ 1 नाही है। जातें यह पुद्गलपरिणाममय है, ऐसे होतें अपनी अनुभूति भिन्न है ॥१०॥ बहुरि " जो यथार्थतखकी अप्रातिरूप मोह है सो सही जीवकै नाहीं है। जाते यह पुद्गलपरिणाममय :
है, ऐसे होते अपनी अनुभूति भिन्न है ॥११॥ बहुरि जे मिथ्यात, अविरति, कषाय, योग है ..
लक्षण जिनिका ऐसे प्रत्यय हे ते सर्वही जीवक नाही हैं। जातें ए पुद्गलपरिणाममय हैं, ऐसे 卐 होतें अपनी अनुभूतिते भिन्न हैं ॥१२॥ बहुरि जो ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोह
नीय, आयु, नाम, गोत्र, अंतरायरूप कर्म है सो सर्वही जीवकै नाही है। जाते० ॥१३॥ बहुरि जो छह पर्याप्ति तीन शरीरयोग्य वस्तुरूप पुद्गलस्कंध नोकर्म है सो सर्वाही जीवके नाहीं है।' जाते० ॥१४॥ बहुरि जो कर्मके रसकी शक्तिके अविभागप्रतिच्छेदका समूहरूप वर्ग है सो सर्वही जीवके नाहीं है। जाते. ॥१५॥ बहरि जो वर्गनिका समूहरूप वर्गणा है सो सर्व ही जीवकै : नाहीं है । जाते॥१६॥ बहुरि जे मंद, तीव्र रसरूपकर्मका समूहकरि विशिष्टवर्ग तिनिका ..
वर्गणाका स्थापन, सो है लक्षण जिनिका ऐसे स्पर्द्धक हैं ते सर्ग ही जीवके नाहीं हैं। जाते. ॐ ॥१७॥ बहुरि जे स्वपरका एकपणाका निश्चय आशय होते विशुद्ध चैतन्यपरिणामते न्यारापणा ,
है लक्षण जिनिका ऐसे योगस्थान, ते सर्व जीवके नाही है। जाते. ॥१८॥ बहुरि जे न्यारे " 卐 न्यारे विशेषरूप प्रकृतिनिके रसरूपपरिणाम है लक्षण जिनिका ऐसे अनुभागस्थान हैं ते सर्वही० ॥
॥१९॥ बहुरि जो काय, वचन मनोरूप वर्गणाका चलना सो है लक्षण जिनिका ऐसे योगस्थान ते सर्व० ॥२०॥ बहुरि जे न्यारे न्यारे विशेषकू लिये प्रकृतिनिके परिणाम है लक्षण जिनिका ऐसें ॥ बंधस्थान हैं ते सर्गः ॥२१॥ बहुरि जे अपने फलके उपजावनेवि समर्थ कर्मकी अवस्था सो है -
लक्षण जिनिका ऐसे उदयस्थान हैं ते सर्व० ॥२२॥ 卐 बहुरि जे. गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व,
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