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________________ फ्र मथ 卐 5 संज्ञा, आहार है लक्षण जिनिका ऐसे मार्गणास्थान हैं ते सर्व० ॥२३॥ बहुरि जे न्यारे न्यारे विशेषनिकू लिये प्रकृतिनिके कालांतर विषै साथि रहना है लक्षण जिनिका ऐसे स्थितिबंध के क स्थान हैं ते सर्वही जीवके नाहीं हैं। जातें ए पुद्गलद्रव्य के परिणाममय हैं, ऐसें होतें अपनी अनुभूतितें भिन्न हैं ||२४|| बहुरि जे कषायका विपोकका उत्कृष्टपणा है लक्षण जिनिका ऐसे संत शस्थान हैं ते सर्व ० ||२५|| बहुरि जे कबायके विपाकका मंदा है लक्षण जिनका ऐसें विशुद्धिस्थान हैं ते सर्व० ||२६|| बहुरि जे चारित्रमोहका उदयकी अनुक्रमतें निवृत्ति है लक्षण farer ऐसे संस्थान हैं ते सर्व० ||२७|| बहरि जे पर्याप्त, अपर्याप्त, बादर, सुक्ष्म, 5 5 एकेंद्रिय, द्वी द्रिय, श्री द्रिय, चरिंद्रिय संज्ञी असंज्ञी पंचेंद्रिय है लक्षण जिनिका ऐसे जीवस्थान हैं ते सर्व० ||२८|| बहुरि जे मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्पग्मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि क 5 संपता संपत, प्रससंयत, अप्रमत्तसंपत, अपूर्णकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसराय, उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली, अयोगकेवली ए है लक्षग जिनिके ऐसे गुणस्थान हैं ते सर्गही जीव फ नाही हैं, जातें ए पुद्गद्रव्यपरिणाममय हैं । ऐसें होतें अपनो अनुभूतितें भिन्न हैं ||२९|| ऐसें फ्र ए सही पुद्गलद्रव्य परिणाममय भाव हैं ते सर्वही जीवके नहीं हैं। जीव तौ परमार्थ5 चैतन्यशकिमात्र है। अब इसही अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं । 卐 फ्र 卐 R பிபிபிபிபிபிபிபிபிபிபிபிபி मालिनी छन्दः error मोह्रादयो वा भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः | तेनैवान्तस्ततः पश्वतोऽमी नो दृष्टाः स्युर्दष्टमेकं परं स्यात् ||१४|| ननु वर्णादयो यद्यपी न संति जीवस्य तदा तत्रांतरे कथं संतोति प्रज्ञाप्यते इति चेत्- अर्थ-वर्णादिक अथवा रानोहादिक सर्वही भाव कड़ें से सर्वही या पुरुष के भिन्न हैं । तिसही 1 कारणकर अंतः ष्ठिकर देखते ए सर्वही नाहीं दोखे । केवल एक चैतन्यभावस्वरूप अभेदरूप पुरुषही दीख्या । 5555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 卐 क 卐 फ 卐 卐 卐 १२६ 卐
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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