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" अशुभरूप दोऊ हो आप स्वयं निश्चयतें बंध हीका कारण हैं । आगे शुभ अशुभ दोऊ हो कर्म 卐 अविशेष करि बंधका कारण साधे हैं । गाथाक सौवरिणयमि णियलं बंधदि कालायसं च जह पुरिसं। बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्मं ॥२॥
सौवर्णिकमपि निगलं बध्नाति कालायसमपि च यथा पुरुषं ।
वनात्येवं जीवं शुभमशुभं वा कृतं कर्म ॥२॥ .आत्मरूयातिः-शुभमशुभं च कर्मविशेषणैव पुरुषं बध्नाति बंधत्वाविशेषाद कंचनकालायसनिगलवत् अयोभयं कर्म प्रतिषेधयति
अर्थ-जैसे सुवर्णकी बेडी पुरुषकू बाधे है अर लोहेकी बेडी भी पुरुपकू बांधे है, तैसें शुभ 5 तथा अशुभ किये हुये कर्म है सो जीवकू बांधे ही है।
टीका-शुभ अर अशुभ कर्म है सो अविशेष करि पुरुष जो आत्मा ताकू बांधे ही है, जातें - दोऊ बंधपणा करि विशेष रहित हैं। जैसे सुवर्णकी वेडी अर लोहकी बेडीमें बंध अपेक्षा भेद ॥
नाहीं । तेसै कर्ममें भी बंध अपेक्षा भेद नाहीं है। आगै शुभ अशुभ जे दोऊ कर्म तिनिकू निषेधे
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हैं। गाथा
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तहमादु कुसीलेहिय रायं माकाहि माव संसग्गं । साधीणो हि विणासो कुसीलसंसग्गरायेण ॥३॥
तस्मात्तु कुशीरागं मा कुरु मा का संसर्ग।
स्वाधीनो हि विनाशः कुशीलसंसर्गरागाभ्याम् ॥३॥ आत्मरूयाति:-कुशीलशुभाशुभकर्मम्यां सह रागसंसगौं प्रतिपिडौ बंधहेतुत्वात् कुशीलमनोरमाऽमनोरमकरेणुकुट्टि- का + नीरागसंसर्गवत् । अथोभयं कर्म प्रतिषेध्यं स्वयं दृष्टांतेन समर्थपते--
रमा
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