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________________ जज म + + अर्थ-जीवके अपने स्वभाव होते भई ऐसी परिणामशक्ति है सो पूर्वोक्तप्रकार निर्विन ठहरी । ताकू ठहरते संते सो जीव जिस भावकू आपके करे, ताहीका सो को होय है।। भावार्थ-जीव भी परिणामी है, सो आप जिस भावरूप परिणमै ताका कर्ता होय है। आगे इसही अर्थकू लेकरि भावनिका विशेष करि कर्ता कहे हैं । गाथा नीचे लिखी तीन गाथाओंकी आत्मख्याति संस्कृत और हिन्दी टीका उपलब्ध नहीं है इसलिये नहीं छापी गई। वात्पर्यवृत्ति टीका मिलती है वह छपी है। जो संगं तु मुइत्ता जाणदि उवओगमप्पयं सुद्धं । तं णिसंग साई परमठवियाणया विति ॥ यः संग तु मुक्त्वा जानाति उपयोगमयकं शुद्ध। तं निस्संग साधु परमार्थविज्ञायका विदंति ॥ तात्पर्यवृत्तिः–जो संगं तु मुइना जाणदि उपभोगमप्पयं सुद्धं यः परमसाधुर्वाधान्यंतरपरिग्रहं मुक्त्वा वीतराग- " चारित्राषिनाभूतमेदज्ञानेन जानात्यनुभवति । कं कर्मतापन्नं आत्मानं । कथं भूतं विशुद्धज्ञानदर्शनोपयोगस्वमानत्वादुप योगस्तमुपयोगं शानदर्शनोपयोगलक्षणं । पुनरपि कथं भृतं । शुद्ध भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मरहितं । सं णिसंग साहु । परमळवियाणया विति तं साधु निस्संगं संगरहितं विदंति जानसि नुवंति कथयति वा । के ते परमार्थविज्ञायका गणघरदेवादय इति। ___ अर्थ-जो साधु बाह्य अभ्यंतर परिग्रह छोड़कर वीतराग चारित्रके साथ होनेवाले भेदज्ञानसे शान दर्शनोपयोग लक्षणवाले शुद्ध आत्माको जानता है, अनुभवन करता है उसीको परमार्थ .. जाननेवाले गणधरादिक संगरहित साधु कहते हैं। जो मोहं तु मुइत्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं । तं जिदमोहं साहुं परठमवियाणया विति॥ s s s s s s 乐乐 乐 乐乐 乐乐 听 के + + + +
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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