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उपभोगमिन्द्रियेद्रव्याणामचेतनानामितरेषाम् ।
यत्करोति सम्यग्दृष्टिस्तरसर्व निर्जरानिमितम् ॥१॥ ___ आत्मख्यातिः--विरागस्योपभोगो निर्जरायैव रागादिभावानां सद्भावेन मिच्यादृष्ट रचेतनान्यद्रव्योपभोगो बंध1 निमित्तं स्यात् । एतेन द्रव्यनिर्जरास्वरूपमावेदितं । + अथ भावनिर्जरास्वरूपमावेदयति--- - अर्थ-सम्यग्दृष्टि जोव जो इन्द्रियनिकरि चेतन तथा अचेतन जे द्रव्य, तिनिका उपभोग करे 卐 है, तिनिळू भौगवे है, सो सर्व ही निर्जराके निमित्त है।
टीका-विरागीका उपभोग है सो निर्जराके अर्थी ही है। जातें मिथ्यादृष्टिके रागादिभावनिके सद्भावतें चेतन अचेतन द्रव्यका उपभोग है सो बंधनिमित्त ही होय है । इस कथनकार दव्य-5 + निर्जराका स्वरूप कह्या ।
भावार्थ-सम्यग्दृष्टीकू ज्ञानी कह्या है, सो ज्ञानीके राग द्वेय मोहका अभाव कहा है। सो 卐 विरागीके इंद्रियनिकरि भोग होय है, सो तिस भोगकी सामग्रीकू यह सम्यग्दृष्टि ऐसा जाने है-जो - __ ये परद्रव्य हैं मेरा इनिका किछु नाता नाहीं, अर कर्म के उदयके निमित्तकरि इनिका मेरा संयोग- "
वियोग है, अर चारित्रमोहका उदय आय पीडा करे है । सो बलहीन है, जेते सही न जाय है। तातें जैसे रोगी रोगकू भला न जानै अर पीडा न सही जाय, तव ताका औषधि आदि करि इलाज करे, तैसे विषयरूप भोगोपभोगसामग्रीतें इलाज करे है। अर कर्मके उदयतें तथा भोगो
पभोग सामग्रीत राग द्वेष मोह नाहीं है । तातें सम्यग्दृष्टि ऐसे विरागी है, सो याके भोग उप" भोग है, सो निर्जराहीके निमित्त है । कर्म उदय होय है, सो अपना रस दे क्षरि जाय है । उदय + आये पीछे द्रव्यकर्मका सत्त्व रहैं नाही, निर्जरे ही । अर सम्यग्दृष्टीकै तिस कर्मउदयसू राग
देष मोह नाहीं। उदय आयाकू जानि ही ले है अर फलकू भौगवे है। सो राग देष मोह बिना भगवे वाले कर्म आवे नाही. आसवविना सम्यग्दृष्टि विरागीके आगामी बंध नाही, प्रेसें -
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