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________________ ' 卐 ' अर्थ-पशु अज्ञानी एकांतवादी है सो पुरुष जो आत्मा ताकू सर्वद्रव्यमय। एक. कल्पिकार पय... अर कुनयकी वासनाकरि वासित हुवा प्रकट परद्रव्यवि स्वद्रव्यका भ्रमकरि विश्रामकरे है।। ,प्रबहरि स्याद्वादी है सो समस्त ही वस्तुविर्षे परद्रव्यस्वरूप करि नास्तिताकू जानता संता निर्मल है शुद्धज्ञानकी महिमा जाको ऐसा हुवा स्वद्रव्यहोवू आश्रय करे है। भावार्थ-एकांतवादी तो सर्वद्रव्यमय एक आत्माकू मानि परद्रव्य अपेक्षा नास्तिता है; प्रताका लोप करे है । अर स्याद्वादी समस्तवि परद्रव्य अपेक्षा नास्तिता मानि अपना निजद्रव्य- ... है रमे है । यह परद्रव्य अपेक्षा नास्तिताका भंग है । पुनः卐 भिन्न क्षेत्र निषण्णवीध्यनियतव्यापारनिष्ठः सदा सीदत्येव बहिः पतन्तमभितः पश्यन्पुमांसं पशुः । स्वक्षत्रास्तितया निरुदरभसः स्याद्वादवेदी पुनस्तिष्ठत्यात्मनि खातबोध्य नियतव्यापारशक्तिर्भयन् ।।८।। ___ अर्थ-अशु अज्ञानी एकांतवादी है सो भिन्नक्षेत्रवि तिष्ठया जे ज्ञेयपदार्थ तिनिवि ज्ञेय. - ज्ञायकसंबंधरूप निश्चितव्यापारविर्षे तिष्ठया संता पुरुषकू समस्तपणे बाह्यज्ञेयानविर्षे ही पड़ता संता ताकू देखता संता कष्टहीकू प्राप्त होय है। बहुरि स्याद्वादका जाननेवाला है सो अपने प्र क्षेत्रवि अपना अस्तिपणाकरि रोक्या है अपना रभस ज्याने ऐसा भया संता आत्माहीविर्षे आकाररूप भये जे ज्ञेय तिनिका निश्चयव्यापारकी शक्तिरूप होता संता अपने क्षेत्रहीवि के 卐 अस्तित्वरूप तिष्ठे है। भावार्थ-एकांतवादी तौ भिन्नक्षेत्रवि ज्ञेय पदार्थ तिष्ठे हैं तिनिके जाननेके व्यापाररूप। म होता पुरुषको वाह्य पडता ही मानि नष्ट करे है। बहुरि स्याद्वादी अपना क्षेत्रवि ही तिष्ठथा .- पुरुष अन्यक्षेत्रवि तिष्ठते ज्ञेयनिकू जानता संता अपने क्षेत्रहीवि अस्तित्व धारे है, ऐसा " मानता संता आत्माहीविर्षे तिष्ठे है। यह स्वक्षेत्रविर्षे अस्तित्वका भंग है। पुनः- 卐 स्वक्षेत्रस्थितये पृथग्विधपरक्षेत्रस्थितायोज्झनात्तुच्छीभूय पशुः प्रणश्यति विदाकारा सहार्वमन् । स्याद्वादी तु वसन स्वधामनि परक्षेत्र विदनास्तितां त्यक्तार्थोऽपि न तुच्छतामनुभवन्याकारकर्षी परान् ॥६॥ 卐卐; 卐99 卐म
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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