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________________ --- टीका-इस ज्ञायक आत्माके बंधपर्यायके निमित्ततें अशुद्धपणा है, सो तौ दूरि हि तिष्ठौ, .. __ याके दर्शन ज्ञान चारित्र हैं ते भी विद्यमान नाही हैं। ज्यात निश्चयकरि अनंतधर्मा जो एक धर्मी वस्तु, ताकू जानें न जाण्या, ऐसा जो निकटवर्ती शिष्यजन, सात तिस अनंतधर्मस्वरूप .. 4 धर्मीका जनावनहारे जे केई धर्म, तिनिकरि तिस शिष्यजनकू उपदेश करते जे आचार्य, तिनिका । धर्मनिके अर धर्मीके स्वभावथकी अभेद है। तौऊ नामथकी भेद उपजाय करि व्यवहारमात्र 卐 हीकरि, ज्ञानीकै दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है ऐसा उपदेश है। बहरि परमार्थते देखिये तब एक" द्रव्यनें पीये जे अनंतपर्याय, तिसपणाकरि एकज्यौं मिल्या हुवा आस्वादरूप अभेदस्वभाव वस्तूकुंभ अनुभव करते जे पंडित पुरुष तिनिकै दर्शन नाही, ज्ञान नाहीं, चारित्र नाही, एक ज्ञायक ही है, 1 सो ही शुद्ध है। भावार्थ-या शुद्ध आत्माकै कर्मबंधके निमित्ततें अशुद्धपणा आवे है, सो तौ दूरि ही रहो। - याकै दर्शन ज्ञान चारित्रका भी भेद नाहीं है, जाते वस्तु है सो अनंतधर्मरूप एकधर्मी है। सोज " व्यवहारी जन धर्मनिहीकू समझे हैं, अर धर्मीकू नाहीं जाने हैं। तातें वस्तूका केई असाधारण । धर्मनिळू उपदेशमें लेकरि, ययपि वस्तू अभेद है, तथापि धर्मनिका नामरूप भेदकू उपजाय ऐसा उपदेश करे हैं ।जो, ज्ञानीके दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है, यह अभेदवि भेद किया, तातें 5 卐 व्यवहार है। परमार्थ विचारिये तब अनंतपर्यायनिकू एकद्रव्य अभेदरूप पीये बैठा है, तातें भेद ... नाहीं। इहां कोई कहै, पर्याय भी तो द्रव्यहीके भेद हैं, अवस्तु ती नाही, ताकू व्यवहार कैसे म कहिये ? ताका समाधान-जो, यह तो सत्य है, परंतु इहां द्रव्यदृष्टिकरि अभेदकू प्रधान करि 1- उपदेश है । तातें अभेददृष्टि में भेद गौण कहें ही, अभेद स्पष्ट दीखे, तातें भेदकू गौणकरि ॥ " व्यवहार कहा है । इहां प्रयोजन ऐसा-जो, भेददृष्टिमें निर्विकल्पदशा होय नाही, अर सरागीके म विकल्प रहै । जेतें रागादिक मिटे नाहीं तातें भेदकू गौणकरि अभेदरूप निर्विकल्प अनुभव , .- कराया है, वीतराग भये भेदाभेदरूप वस्तूका ज्ञाता होय है तहां नयका आलंबन है नाहीं। आगें । 5 $ 乐乐 乐乐 乐乐 乐乐 乐乐
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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