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का है। ऐसे सर्वथा एकांत समझे मिथ्यात्व आधे है। तातें स्याद्वादका शरण ले शुद्धनयका आलंबन के 4 करना, स्वरूपकी प्राप्ति भये पीछे शुद्धनयका भी अवलंबन नाहीं है, जो वस्तुस्वरूप है, सो है,
यह प्रमाणदृष्टि है, याका फल वीतरागता है। ऐसा निश्चय करना । बहुरि इहां गाथामें प्रमत्त फ़ अप्रमत्त नाहीं है, ऐसें कहा है । सो गुणस्थानकी परिपाटीमें चारणस्थानताई तो प्रमत है, 11- अर सातमति लगा अप्रमत्त है । सो ए सर्व ही गुणस्थान अशुद्धनयकी कथनीमें हैं। शुद्धनयमें
आत्मा ज्ञायक ही है । आगे फोरि प्रश्न उपजे है, जो-दर्शन ज्ञान चारित्र ए आत्माके धर्म कहे - हैं, सो तीन भेद भये, सो इनि भावनिकरि याकै अशुद्धपणा आवे है। ऐसा प्रश्न होते " याका उत्तरका गाथासूत्र कहे हैं। गाथा
ववहारेणुवदिस्सदि, णाणिस्स चरित्तदंसणं णाणं । णविणाणं ण चरित्तं ण दसणं जाणगो सुद्धो॥७॥
व्यवहारेणोपदिश्यते ज्ञानिनश्चरित्र दर्शनं ज्ञानम् ।
नापि ज्ञानं न चरित्रं न दर्शनं ज्ञायकः शुद्धः ॥७॥ 5 आत्मख्यातिः—आस्तां तावबंधप्रत्ययात् ज्ञायकस्याशुद्धत्वं दर्शनचारित्राण्येव न विद्यन्ते । यतीनंत धर्मण्येकस्मिन्
धर्मिणि निष्णातस्यांतेवासिजनस्य तदवबोधायिभिः कैश्विमैस्तमनुशासतां घरीणां धर्मधर्मिणां स्वभावतोऽभेदेपि व्यप-म प्रदेशतो भेदमुत्पाद्य व्यवहारमात्रेणेव ज्ञानिनो दर्शनं ज्ञानं चारित्रमित्युपदेशः । परमार्थतस्त्वेकद्रम्पनिम्मीतानंतपर्यायतयैकं
किंचिन्मिलितास्वादमभेदमेकस्वभावमनुभवतो न दर्शनं न शानं न चारित्रं झायक एवैकः शुद्धः ॥ ७॥ तर्हि परमार्थ 卐 एवैको वक्तव्य इति चेद--
___अर्थ-ज्ञानीकै चारित्र, दर्शन, ज्ञान ये तीन भाव हैं, ते व्यवहारकरि उपदेशिये हैं। निश्च । + यकरि ज्ञान भी नाहीं है, चारित्र भी नाहीं है, दर्शन भी नहीं है। ज्ञानी तो एक ज्ञायक ही है,
पाहीतें शुद्ध कहिये।
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