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" विर्षे वर्तमान जो अपना आत्मा, ताळू दृढतर भेदविज्ञानका अवलंबन करि आपहीकरि अत्यंत ।
रोकिकरि, बहुरि शुद्धज्ञानदर्शनरूप जो अपना आत्मद्रव्य, ताविर्षे भलेप्रकार प्रतिष्ठितकरि ठह- - .. रायकरि, अर समस्त परद्रव्यकी इच्छाका परिग्रहसू रहित होयकरि, नित्य ही अतिनिपकंपात " निश्चल हुवा संता. किंचिन्मात्र भी कर्मको स्पर्श नाही करि, अर अपने आत्माहीकू आत्माकरि ॥ न ध्यावता संता, आप स्वयंचेतनेवाला है, सो अपना चेतनारूपहीकुं एकत्वकू चेते है-अनुभवे है "ज्ञानचेतनामय होय है । सो जीव निश्चयकरि एकपणाका अनुभव करनेकरि परद्रव्यते अत्यंत
भिन्न चैतन्यचमत्कार मात्र अपना आत्माकूध्याक्ता संता, शुद्ध दर्शनज्ञानमय आत्मद्रव्यकू प्राप्त . भया संता, शुद्ध दर्शनज्ञानमय आत्मद्रव्यकू शुद्धात्माका उपलंभ होते संते, समस्तपरद्रव्यमयपणातें 5 दूरि भया संता थोरे ही कालमें समस्तकर्मते रहित आत्माकू पावे है। यह संवरका प्रकार है। .. भावार्थ-जो जीव पहले तो राग द्वेष मोहसू मिले शुभाशुभ मनवचनकायके योग, तिनितें
भेदज्ञानके बलतें अपने आत्माकू चलने न दे, पीछे शुद्धदर्शनज्ञानमैं अपनास्वरूपविर्षे निश्चल
करे, अर समस्त बाद्याभ्यंतरके परिग्रहत रहित होयकार, कर्मनोकर्मत भिन्न अपना स्वरूपवित्रं - एकाग्र होय ध्यान करता संता तिष्टे, सो थोरे ही कालमें समस्त कर्मका नाश करे है। यह संवरका प्रकार है । अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
मालिनीछन्दः निजमहिमरतानां भेदविज्ञानशक्त्या भवति नियतमेषां शुद्धमात्मोपलम्भः ।
अचलितमखिलान्यद्रव्यद्रे स्थितानां भवति सति च तस्मिन्नक्षयः कर्ममोक्षः ॥४॥ + केनक्रमेण संवरो भवतीति चेत्... अर्थ-जे पुरुष भेदविज्ञानकी शक्तिकरी अपना स्वरूपकी महिमाविषं लीन हैं, तिनिके ॥ निनियमत शुद्धतत्वकी प्राप्ति होय है। बहुरि तिस शुद्धतत्त्वकी प्राप्ति होते संते जे निश्चल जैसे ३०३ तोप तैसें समस्त अन्यद्रव्यनितें दूरि तिष्ठे हैं, तिनिके कर्मका मोक्ष कहिये अभाव होय है, सो ६
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