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________________ समय 555 भावार्थ-जो इस भवमें लोकनिका डर होय, जो यह लोक मेरा न जानिये कहा बिगाड सभा करना ! सो ऐसा सो इह लोकका भय है । बहुरि परभवमें न जानिये, कहा होयगा? ऐसा भय ॥ - रहे सो परलोकका भय है । सो ज्ञोनी ऐसें जाने-जो मेरा लोक तौ चैतन्यस्वरूपमात्र एक नित्य है, यह सर्वक प्रगट है । बहुरि इस लोक सिवाय है सो परलोक है; सो मेरा लोक तौ काइका क बिगाडया बिगडे नाहीं। ऐसे विचारता ज्ञानी आपकं स्वाभाविक ज्ञानरूप अनुभवें, साकै इस ।। लोकका भय काहेतें होय ? कदाचित् न होय । अब वेदनाका भयका काव्य है। शार्दूलविक्रीडितछंदः एषकेव हि वेदना यदचलंबानं स्वयं वेद्यते निभेदोदितवेधवेदकवलादेकं सदानाकुलः। नैवान्यागतवेदनैव हि भवेत्तद्धीः कुतो ज्ञानिनो निःशः सततं स्वयं स सहजं वानं सदा जिन्दति ॥२४॥ अर्थ-ज्ञानी पुरुषनिकै याही एक वेदना है जो निराकुल होय करि अपना एक ज्ञानस्वरूपा आप अपना ज्ञानभावही वेदने योग्य है अर आपहीवेदनेवाला ऐसा अभेदस्वरूप वेधवेदकभावके, 卐 चलते निरन्तर निश्चल वेदिये है-अनुभवन कीजिये है। बहुरि ज्ञानीके अन्यतें आई ऐसी वेदना .. ही नाही है ताते तिसकै तिस वेदनाका भय काहे होय ? नाहीं होय । यात ज्ञानी निःशंक 9 भया संता अपना स्वाभाविक ज्ञानभावकू सदा निरन्तर अनुभव है। भावार्थ-वेदना नाम सुखदुःखका भीगनेका है सो ज्ञानीकै एक अपना ज्ञानमात्रस्वरूपका भोगना ही है। यह अन्यकरि आईकू वेदना ही नाहीं जाने है। ताते अन्यागतवेदनाका भय जज नाहीं है । तातें सदा निर्भय भया ज्ञानका अनुभवन करे है । अब अरक्षाका भयका काव्य है। शालविक्रीडितच्छन्दः यत्सनाशमुपैति या नियतं व्यक्त ति वस्तुस्थितिओनं सरस्वयमेव तत्किल ततस्त्रातं किमस्वापरः। अस्यात्राणमतो न किंचन भवेत्चद्भीः कुतो शानिनो निःशंकः सततं स्वयं स सहजं शानं मदा विन्दति । २शा अर्थ-ज्ञानी ऐसे विचार है, जो सत्स्वरूप वस्तु है, सो नाशकू प्राप्त नाहीं होय है, यह 5555 594
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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