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________________ 95555555555555 卐 卐 1 टीका- यह आत्मा प्रगट अज्ञानकरि परकै अर आपके विशेषका भेदज्ञान न करते संते परकू समय तो आप करें है बहुरि आपकुं पर करें । ऐसें आप अज्ञानमयी भया संता कर्मनिका कर्ता होय हैं, सोही प्रगटकर कह हैं। जैसे शीतउष्णका अनुभव करावनेविषे समर्थ जो पुद्गलपरिणामकी उष्ण अवस्था पुद्गलते आस्मात नित्यही अ 卐 5 5 卐 卐 卐 तिस प्रकारका अनुभव करावनेविषै समर्थ जो रागद्वेषसुखदुःखादिरूप पुद्गलपरिणामकी अवस्था, सो पुद्गलतें अभिन्नपणाकरि आत्मा नित्यही अत्यंत भिन्न है । बहुरि तिसनिमित्ततें भये तिस प्रकारका राग पादिकका अनुभवकै आत्मातें अभिन्नपणाकरि अर पुद्गलतें नित्यही अत्यंत भिन्नपणा है । तौऊ तिसरागढ़ पादिकका अर तिसका अनुभवका अज्ञानतें परस्पर भेदज्ञान नाहीं होतें एकपणाका निश्चयतें जैसें शीत उष्णरूपकरि आत्माकै परिणमनको असमर्थपणा है, तैसें रागद्वेष 5 सुखदुःखादिरूप भी आपही करि परणमनेका असमर्थपणा है, तौऊ रागद्र बादिक पुद्गल परिणामकी अवस्था तिसके अनुभवका निमित्तमात्र होतें अज्ञानस्वरूप रागद्व षादिरूप परिणमता संता अपने ज्ञानके अज्ञानपणाकू प्रगट करता संता आप अज्ञानमयी भया संता, यह मैं रागी हूं इत्यादि विधानकरि रागादिक कर्मका कर्ता प्रतिभासे है । 卐 भावार्थ - रागद्रष सुखदुःखादि अवस्था पुद्गलकर्म के उदयका स्वाद है सो यह पुद्गल- 5 कर्म अभिन्न है, आत्मार्ते अत्यंत भिन्न है, जैसें शीत उष्णपणा है तैसें । सो आत्माके अज्ञानतें याका भेदज्ञान नाहीं । यातें ऐसा जाने है, जो यह स्वाद मेरा ही है, जातें ज्ञानकी स्वच्छता 5 ऐसी ही है, जो रागद्वेषादिकका स्वाद शीत उष्णकी ज्यों ज्ञानमें प्रतिबिंबित होय, तब ऐसा 卐 प्रतिभासे, जानू की ए ज्ञान ही है, तातें ऐसें अज्ञानतें या अज्ञानी जीवकें इनिका कर्तापणा भी फ्र आया, जाते या ऐसी मान्य भई, जो मैं रागी हौं, द्वेषी हौं, क्रोधी हौं, मानी हौं इत्यादि, ऐसें कर्ता होय है। आगे कहे हैं, जो ज्ञानतें कर्म नाहीं उपजे है । गाथा 5 卐
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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