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________________ पर $ $ 听听听听听听 .. ज्ञानी पहिचाने, तब एक ही जाने । तैसें सम्यग्दृष्टीका ज्ञान यथार्थ है सो यद्यपि कर्म एक ही है, । सो पुण्यपाप भेदकरि दोय प्रकार रूप करि नाचे है, ताकू एकरूप पहिचानि ले । तिस ज्ञानकी 5 महिमारूप इस अधिकारके आदिवि काव्य कहे हैं। द्रुतविलम्बिवच्छन्दः ॥ तदथ कर्म शुभाशुभभेदतो द्वितयतां गतमैक्यमुपानयन् । ग्लपितनिर्भरमोहरजा अयं स्वयादेत्यवबोधसुघाप्लवः ॥१॥ .. अर्थ-अथ कहिये कर्ताकर्म अधिकारके अनंतर, यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर सम्यग्ज्ञानरूप + चंद्रमा है, सो स्वयं आपआप उदयकू प्रात होय है । कैसा है ? तत् कहिये सो प्रसिद्ध कर्म है 4 र सो कर्म सामान्यकार एक ही प्रकार है । सो शुभ अर अशुभके भेदतें दोयरूपपणाकू प्राप्त " भया है । ताकू एकपणाकू प्राप्त करता संता, उदय होय है। 4 भावार्थ-अज्ञानतें एक कर्म दोय प्रकार देखै था, सो ज्ञान एक प्रकार दिखाय दिया। बहुरि कैसा है ज्ञान ? दरी किया है अतिशयरूप मोहमय रज जाने । भावार्थ-ज्ञानविर्षे मोहुरूप रज लागि रहा था, सो दूरी किया, तब यथार्थ ज्ञान भया। जैसे चंद्रमाकै बादला तथा पाला का पटल आडा आवै, तब यथार्थप्रकाश होय नाही, आवरण दूरी भये यथार्थ प्रकासे, तैसें । 卐 जानना । आर्गे पुण्यपापका स्वरूपका दृष्टांतरूप काव्य कहे हैं। मन्दाक्रान्ताछन्दः एको दान्यजति मदिरा ब्राह्मणत्वाभिमानादन्यः शूद्रः स्वयमहमिति स्नाति नित्यं तव । द्वावयेतो युगपदुदरान्निर्गतौ शूद्रिकायाः शूद्रौ साक्षादय च चरतो जातिभेदभ्रमेण ॥२॥ अर्थ- काहू शूद्री स्त्रीके उदरतें युगपत् एक ही काल दोय पुत्र निसरे जन्मे, तिनिमें एक卐 + तौ ब्राह्मणके घर पल्या, ताके ब्राह्मणपनाका अभिमान भया, जो में ब्राह्मण हौं सो तिस अभि-।। मानतें मदिराकू दूरीही छोडे है, स्पर्श भी नाहीं है। बहुरि दूजा शूदहीके घर रह्यो, सो में + आप शूद्र हौं ऐसे मानि तिस मदिराकरि नित्य सौच करे है, शुचि माने है सो याका परमा +5 5 +++++ । .. . ल
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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