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________________ + + 9 भावनिविय मोहके अभावतें अमूढदृष्टि है। ताते याके मूढदृष्टिकरि किया हुवा बंध नाही है। म - तो कहा है ? निर्जरा ही है। ॐ भावार्थ-सम्यग्दृष्टि सर्वपदार्थनिका स्वरूप यथार्थ जाने हे, तिनिपरि राग द्वेष मोहके है - अभावते अयथार्थदृष्टि नाहीं पडे है, अर चारित्रमोहके उदयसे इष्टानिष्टभाव उपजे, ताकू - "उदयकी बरजोरी जानि तिनि भावनिका कर्ता न होप है। तातें मूढदृष्टिकरि किया हुवा बंध 卐 नाहीं है । तो कहा है ? निर्जरा ही है। प्रकृति रस दे खिरि जाय है । सो निर्जरा ही है। अब .. उपगृहनगुणकी गाथा है। जो सिद्धभत्तिजुत्तो उवगृहणगो दु सव्वधम्माणं । सो उवगृहणगारी सम्मादिछी मुणेदवो ॥४१॥ यः सिद्धभक्तियुक्तः उपगृहनकस्तु सर्वधमान । स उपगृहनकारी सम्यग्दृष्टितिव्यः ॥४१॥ - वात्मख्याति:—यतो हि सम्यग्दृष्टिः, टंकोत्कीर्णेकज्ञावकमावमपरवेन समस्तात्मशक्तीनामुपहणातुपाहक, + ततोऽस्य जीवस्य शक्तिदौर्बल्यकृतो नास्ति बंधः किं तु निरैव । + अर्थ-जो जीव सिद्धनिकी भक्तिकरि संयुक्त होय अर अन्य वस्तुके सर्वधर्मनिका उपगृहक + कहिये गोपनेवाला होय, सो उपगृहनकारी सम्पम्हष्टि जानना। 卐 टीका-जातें निश्चयकरि सम्पदृष्टि है, सो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावमयपणा करि ॥ ... आत्माकी समस्तशक्तिका उपवृहण कहिये बधावनेते उपहक होय है। ताते याके जीवकी शक्तीका दुर्बलपणाकरि किया बंध नाही है। तो कहा है ? निर्जरा ही होय है। भावार्थ--सम्यग्दृष्टि उपगृहनगुण करि संयुक्त होय है । सो उपगृहन नाम छिपाबनेका है। सो "निश्चयनय प्रधानकरि ऐसा कह्या--जो अपना उपयोग सिद्धभक्तिमै लगावे अर सर्वधर्मनिका + + + +
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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