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आत्मख्यातिः---यतोहि सम्यग्दृष्टिः टंकीर्णेज्ञायकस्वभावमयत्वेन सर्वेष्वपि वस्तुधर्मेषु जुगुप्साऽभावान्निविं5 चिकित्सः ततोऽस्य विचिकित्साकृतो नास्ति वंघः किं तु निजव |
अर्थ- जो जीव सर्व ही वस्तूके धर्मनिकी जुगुप्सा कहिये ग्लानि, ताहि न करे है, सो निश्चय७ 5 करि आत्मा निर्विचिकित्स कहिये विचिकित्सादोषरहित सम्यग्दृष्टि जानना ।
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टीका- जातें सम्यष्टि है सो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणा करि सर्व ही वस्तुधर्मनि fa जुगुप्सा अभाव निर्विचिकित्स है, ग्लानितारहित है । तातें याके विचिकित्साकर किया फ्र 5 बंध नाहीं होय है । तौ कहा है ? निर्जरा ही होय है ।
भावार्थ- सभ्य वस्तू धर्म जे क्षुधा तृषा शीत उष्ण आदि भाव तथा वा आदि फ्र 5 मलिनद्रव्य, तिनिकेविषै ग्लानि नाही करें हैं। जुगुप्सानामा कर्मप्रकृतिका उदय आवे ताका आप कर्ता न होय है । तातें जुगुप्साकर किया याके बंध नाहीं है। प्रकृति रस दे खिरि जाय 5 है । तातें निर्जरा ही है । आगे अमूददृष्टि अंगकी गाथा है ।
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जो हवदि असम्मूढो चेदा सव्वेसु कम्मभावेसु । सो खलु अमृढदिट्ठी सम्मादिठ्ठी मुणेदव्वो ॥४०॥ यो भवति, असंमूढः चेतविता सर्वेषु कर्मभावेषु ।
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स खलु अमृद्दृष्टिः सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्यः ॥ ४० ॥
आत्मख्यातिः - यतो हि सम्यग्दृष्टि, टंकोटकीर्णकज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि भावेषु मोहाभावादमूढदृष्टिः ततोऽस्य फ महदृष्टिकृतो नास्ति बंधः किं तु निर्जरैव ।
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अर्थ- जो जीव सर्व भावनिविषै असंमूढ कहिये मूढ नाही होय है, यथार्थवस्तुकूं जाने है, सो सम्यग्दृष्टि चेतयिता निश्चयकरि अमूढदृष्टि जानना ।
टीका - जातें जो निश्चयकरि सम्यग्दृष्टि है, सो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणा करि सर्व
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