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________________ 乐 乐乐 乐乐 乐乐 乐 यो न करोति तु कांक्षा कर्मफलेषु तथा च सर्वधर्मेषु । स निकांक्षश्वेतयिता सम्यग्दृष्टितिव्यः ॥३८॥ + आत्मख्यातिः-यतो हि सम्यग्दृष्टिः, टंकोत्कीर्णेकज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि कर्मफलेषु सर्वेषु वस्तुधर्मेषु च 1- कांक्षाभावान्निष्कांक्षस्ततोऽस्य कांक्षाकृतो नास्ति बंधः किं तु निर्जरेव | अर्थ-जो आत्मा कर्मके फलनिविर्षे तथा सर्व धर्मनिविर्षे वांछा नाहीं करे है, सो चेतयिता है 卐 आत्मा निष्कांक्ष सम्यग्दृष्टि जानना। ____टीका-जातें सम्यग्दृष्टि है सो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणा करि सर्व ही कर्मके फल-" । निति तथा सर्ज ही परलो गार्गनितिन बांछाके अभावतें निकांक्ष है-निर्वा छक है। तातें याकै + कांक्षाकरि किया हुवा बंध नाहीं है । तो कहा है ? निर्जरा ही है। भावार्थ-सम्यग्दृष्टीकै कर्मका फलकेवि तथा सर्व धर्म कहिये कांच कंकणपणा आदि तथा 卐 निंदा प्रशंसा आदिके वचनरूप पुद्गलके परिणामन इत्यादि अथवा सर्वधर्म कहिये अन्यमतीनि करि माने अनेक प्रकार सर्वथा एकांतरूप व्यवहार धर्मके भेद, तिनिविर्षे वाला नाही है। तातवांछाकरि होता जो बंध, सो याक नाही है। वर्तमानकी पीडा नहीं सही जाय ताके मेटनेके 卐 इलाजकी वांछा चारित्रमोहके उदयते है यह ताका आप कर्ता न होय है, कर्मका उदय जाणि .. ताका ज्ञाता है, तातें वांछाकरि किया बंध नाहीं है । आगै निर्विचिकित्सागुणकी गाथा है। जो ण करेदि दु गुंछं चेदा सवसिमेव धम्माणं । सो खलु णिविदिगिंछो सम्मादिछी मुणेदवो ॥३९॥ यो न करोति जुगुप्सां सर्वेषामेव धर्माणां । स खलु निर्विचिकित्सः सम्यग्दृष्टितिव्यः ॥३९॥ 5 5 5 s s s 5 5 乐乐 乐
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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