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________________ + + + + झहां टीकाकारका आशय ऐसो-जो इस प्रथकू अलंकारकरि नाटकरूप वर्णन किया है, ... सो नाटकविः पहले रंगभूमि आखाडा रचिये हैं । सहां देखनेवाला नायक तथा सभा होय है,5 अर नृत्य करनेवाले होय हैं ते अनेकस्वांग धरे हैं। तथा शृगारादिक आठ रसका रूप दिखावे.... हैं। तहाँ श्रृंगार, हास्य, रौद्र, करुणा, वीर, भयानक, बीभत्स, अद्भुत ए आठ रस हैं ते लौकिकरस हैं । नाटकमें इनिहीका अधिकार है। नवमा शांतरस है सो आलौकिक है। सो नृत्यमें। ताका अधिकार नाहीं है । इनि रसनिके स्थायीभाव, सात्त्विकभाव, अनुभाविभाव व्यभिचारिभाव। तथा इनिकी दृष्टि आदिका वर्णन रसग्रंथनिमें है सो तो तहांते जान्या जाय। अर सामान्यपणे रसका यह स्वरूप है-जो ज्ञानमें जो ज्ञेय आया, तिसते ज्ञान तदाकार भया, तातें पुरुषका भाव" लीन होय जाय, अन्य ज्ञेयकी इच्छा न रहै लो रस है । सो आठ रसका रूप नृत्यमें नृत्य करने वाले दिखावे हैं । अर इनिका कवीश्वर वर्णन कर जब अन्य रसकू अन्यरसके समान करी भी वर्णन करै तब अन्यरसका अन्यरस अंगभूत होनेते, तथा रसनिके भाव अन्यभाव अंग होनेते,म रसवत् आदि अलंकारकरि नृत्यका रूप करि वर्णन किया है। तहां प्रथम ही रंगभूमिस्थल किया, तहां देखनेवाला तो सम्यग्दृष्टि पुरुष है, तथा अन्य। मिथ्यादृष्टि पुरुष हैं तिनिकी सभा है, तिनिकू दिखावे है। अर नृत्य करनेवाले जीव अजीव पदार्थ हैं । अर दोऊका एकपणा तथा कतृकर्मपणा आदि तिनिके स्वांग हैं। तिनिमें परस्पर" अनेकरूप होय हैं । ते आठ रसरूप होय परिणमे हैं। सो नृत्य है। तहां सम्यग्दृष्टि देखने-' वाला जीव अजीवका भिन्नस्वरूपकू जाणे है। सो तो इनि सर्व स्वांगनिकू कर्मकृत जाणि शांतरसहीमैं मग्न है, अर मिथ्यादृष्टि जीवाजीवका भेद न जाणे हैं। यात इनि स्वांगनिहीकूफ सांचे जाणि इनिविर्षे लीन होय हैं। तिनिळू सम्यग्दृष्टि यथार्थ दिलाय तिनिका भ्रम मेटिशांतरसमें तिनिकू लीन करी सम्यग्दृष्टि करे है ताकी सूचनारूप रंगभूमिके अंत आचार्यने । “मजन्तु निर्भर० इत्यादि यह काव्य रचा है। सो आगें जीव अजीवका स्वांग वर्णन करी, सो ।卐卐55
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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