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________________ + $ $ $ + 乐 + ना भया था, ताकुं ज्ञान यथार्थ जाणि स्वांग दूरि कराय आप प्रगट भया, ऐसें ज्ञानकी महिमाके । म卐 अर्थरूप काव्य कहे हैं। मन्दाक्रान्ता छन्दः १२ रागादीनां झगिति विगमात्सर्वतोऽप्यास्रवाणां नित्योद्योतं किमपि परमं वस्तु सम्पश्यतोऽन्तः । स्फारस्फारैः स्वरसविसरैः प्लावयत्सर्षभावा नालोकान्तादचलमतुलं ज्ञानमुन्भग्नमेतत् ॥१२॥ अर्थ-रागादिक आसवनिका तत्काल क्षणमात्र सर्वप्रकार दूरि होनेते नित्य उद्योतरूप किछु परम वस्तूकू अंतरंगविर्षे अवलोकन करनेवाला पुरुषके यहु ज्ञान है सो उन्मम्न कहिये उदयरूप 卐 प्रगट भया । कैसा प्रगट भया ? अतिविस्ताररूप फैलते जे अपने निजरसके प्रवाह, तिनिकरि ॥ सर्वलोकपर्यंत अन्यभाव, तिनिकू अंतर्मग्न करता संता । बहुरि कैसा है ? अचल है-जैसेके तैसे सर्वपदार्थ जामैं सदा प्रतिभासे हैं, चले नाहीं है। वहरि कैसा है ? अतुल है, जाकी बराबरी और नाहीं है। भावार्थ-शुद्धनयकू अवलंबन करि जो पुरुष अंतरंग विर्षे चैतन्यमात्र परमवस्तूकू एकाग्र ॐ अनुभवे है, ताके सर्व रागादिक आस्वभाव दूरि होय, अर सर्वपदार्थ निकू जाननेवाला निश्चल " - अतुल्य केवलज्ञान प्रगट होय है । सो यह ज्ञान सर्वते महान् है। ऐसे आस्त्रवका स्वांग रंगभूमीमें 卐 प्रवेश भया था, ताकू ज्ञान यथार्थरूप जानि लिया, तब निसरि गया। सवैया तेईसा योग कषाय मिथ्यात्व असंयम आस्रव द्रव्य ते आगम गाये । राग विरोध विमोह विभाच अज्ञानमयी यह भावि तजाये ।। जे मुनिराज कर इनि पाल सुरिद्धि समाज लये सिव थाये । काय नवाय नमू चित लाय कहू जय पाय लहूं मन भाये ॥१॥ ऐसें इस समयसार ग्रंथकी आत्मख्याति नामा टीकाकी वचनिकावि आस्रव नामा चौथा अधिकार पूर्ण भया ॥४॥ इहातांइ गाथा १८० भई । कलसा १२४ भवे । $ + $ + म + + + +
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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